सरकारें बदलती रही निजीकरण बढ़ता रहा :विद्युत संशोधन अधिनियम-2020:भाग -6

ambani adani modi tata

By एस. वी. सिंह

पूंजीवाद को ना पीछे धकेला जा सकता है, ना रोक कर रखा जा सकता है, इसे तो बस ध्वस्त किया जा सकता है

ज़ाहिर है, बिजली विभाग के निजीकरण की प्रक्रिया सन 1975 से बदस्तूर चल रही है। उस वक़्त किसी भी दूसरे विभाग में निजीकरण की चर्चा भी नहीं शुरू हुई थी।

तब से आज तक लगभग सभी बुर्जुआ पार्टियाँ सत्ता में आ चुकीं, इस प्रक्रिया में कोई रूकावट नहीं आई।

1991 में पूंजीवाद को घनघोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा जो असाध्य होता जा रहा था।

क्रांतिकारी शक्तियां सशक्त होतीं तो इस मृतप्राय गंभीर असाध्य रोगी को दफनाया जा सकता था लेकिन वैसा नहीं हुआ और इस रोगी के ईलाज के लिए मनमोहन-राव नाम के दो बड़े हकीमों ने एक नुस्खा सुझाया जिसका नाम है;उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण

पूंजीवाद के टुकड़ों पर पलने वाले उदारवादी मुफ्तखोर बुद्धिजीवियों ने इसे लाइसेंस राज से मुक्ति, एक नई आज़ादी घोषित किया और मनमोहन-राव की आरती उतारी।

लेकिन ये रास्ता ठीक वहीँ पहुंचता जहाँ आज हम खड़े हैं। इस जुमले का सरल भाषा में मतलब है, जनमानस से वसूले कर से निर्मित सरकारी इदारों को पूंजीपतियों को कौड़ियों के भाव बेचते चले जाओ।

बिजली विभाग की बिक्री तो पहले से चालू ही थी, उसकी बिक्री और तेज़ कर दी गई।

बिजली विभाग की खरीदी, पूंजी के पहाड़ों पर विराजमान पूंजीपतियों को बहुत पसंद है क्योंकि इसके बगैर अमीर-ग़रीब किसी का काम भी नहीं चल सकता। साथ ही बिजली आपूर्ति के बटन पर हाथ रहे तो सरकार की बांह मरोड़कर उसे घुटनों पर टिकाया जा सकता है और बिजली की दरों को सतत बढ़ाते हुए अकूत मुनाफ़ा कूटा जा सकता है।

दिल्ली की बानगी प्रस्तुत है। दिल्ली में मुकेश अम्बानी की कंपनियाँ बी एस ई एस राजधानी तथा बी एस ई एस यमुना बिजली की आपूर्ति करती हैं। दोनों पक्की घोटालेबाज हैं।

इन कंपनियों ने दिल्ली के 10 बैंकों की कंसोर्टियम से कई हज़ार करोड़ के क़र्ज़ लिए हुए हैं। ये कंपनियां क़र्ज़ की कई किश्तें बाक़ी रखती हैं जिससे उनके एन पी ए घोषित किए जाने का ख़तरा हमेशा मंडराता रहे।

सरकार व बैंक दोनों को ब्लैक मेल करती रहती हैं कि दरें बढाओ वरना क़र्ज़ नहीं भर पाएंगे।

बैंक खुद सरकार के सामने हाथ जोड़ते हैं कि कंपनियों की सुनो वर्ना हम डूब जाएँगे।

6 साल पहले अरविंद केजरीवाल नाम के एक विचित्र ‘ईमानदार’ किरदार की राजनीतिक पटल पर उपस्थिति हुई जिन्होंने घोषणा की कि यदि वे सत्ता में आए तो ‘मुकेश अम्बानी जेल जाएगा

दिल्ली वालों से टूटकर उन्हें वोट किया, वे सभी सीटें जीत गए, सरकार बनी, सी ए जी के ऑडिटर कंपनियों के दफ्तर भी पहुँच गए लेकिन ‘ऊपर’ से कुछ हुआ और वे कंपनियों के रजिस्टर नहीं खोल पाए।

जिस रस्ते आए थे बे-आबरू होकर उसी रास्ते वापस लौट गए। और फिर वही केजरीवाल ‘बुद्धिमान’ हो गए, बेशर्मी से वो सब बातें भूल गए।

मुकेश अम्बानी जेल की दिशा में एक इंच भी ना सरके। ना जाने कितने केजरीवाल मुकेश अम्बानी की जेब में वास करते हैं।

निजीकरण की प्रक्रिया तो वाजपेयी काल में बने बिजली कानून 2003 से ही लगभग पूरी हो चुकी है, फिर 2014 में उनके शिष्य मोदी ने उसे मज़बूत किया और किसानों का क्रोध शांत करने के लिए भले सरकार मौजूदा बिल को आगे बढ़ाने से रुक गई है लेकिन ये रूकावट तात्कालिक है।

देर भले लगे, होना वही है जो कॉर्पोरेट वर्ग चाहता है। किसानों द्वारा दिखाए अभूतपूर्व साहस, धीरज और सामरिक मनोबल को नमन करते हुए भी ये प्रश्न उनसे पूछना ही पड़ेगा; क्या पूंजीवादी ‘विकास’ को पीछे धकेला जा सकता है? उत्तर है; नहीं।

क्या पूंजीवाद को हमेशा के लिए इसी बिंदु पर रोककर रखा जा सकता है? फिर से वही उत्तर है; नहीं।

पूंजी का राज व पूंजी की सेहत भी उसी बिंदु पर रुके हुए नहीं हैं। वह दिन ब दिन सड़ता जा रहा है। ये सरकारें उसकी सेहत को लेकर सतत चिंतित रहती हैं।

जितना उसका ईलाज किया जाएगा उतना ही बोझ आम मेहनतक़श आवाम पर बढ़ता जाएगा।

चंद एकाधिकारी पूंजीपतियों, अडानी-अम्बानियों के मुनाफ़े के पहाड़ और ऊंचे होते जाएँगे।

किसानों के बलिदानों को सलाम करते हुए उन्हें ये बताना ही पड़ेगा कि यदि आप बिजली बिल,पराली बिल और साथ ही तीनों कृषि कानूनों को हमेशा के लिए दफ़न करना चाहते हैं और अपनी उपज की खरीदी की पूरी गारंटी सही में चाहते हैं तो आपको अपनी लड़ाई सारी मुसीबतों की जड़ पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए फोकस करनी पड़ेगी।

पूंजीवाद सिर्फ़ मारने की गारंटी देता है, किसी को भी जिंदा रखने की गारंटी कभी नहीं देता। सरमाएदारों में से खुद हर साल अनेक निबटते जाते हैं तो मामूली किसानों को कैसी गारंटी। ये गारंटी तो, श्रीमान जी, एक मात्र सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में बना समाजवादी राज्य ही दे सकता है।

समाप्त

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