कोरोना के बारे में सरकारी गणितीय दावे क्यों औंधे मुंह गिर गए?

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By आलोक लड्ढा और सुव्रत राजू

कोविड 19 महामारी की दूसरी लहर से पैदा हुए संकट ने इसके असर को समझने के लिए गणितीय मॉडल को बढ़ावा दिया। कुछ मॉडलर्स ने दूसरी लहर के आकार और अवधि को लेकर सार्वजनिक भविष्यवाणियां भी की। इन मॉडलर्स ने यह कहा कि वे भविष्य का अंदाजा लगा सकते हैं और इनके मॉडल विज्ञान के सत्य को बताते हैं। जिसके बाद यह बहुत ही आम बात थी कि इसे लेकर लोगों में दिलचस्पी पैदा हो। इस लेख में हम यह समझाने की कोशिश करेंगे कि इस तरह की भविष्यवाणी आखिर भ्रमित करने वाली क्यों होती हैं।

गणितीय मॉडल का इस्तेमाल विज्ञान के कई शाखाओं में सफलता के साथ होता है। लेकिन जिन मॉडल को वैश्विक महामारी के लिए तैयार किया गया उनमें कई तरह के गंभीर सैद्धान्तिक दिक्कत है। पिछले साल से इसके आशा के विपरीत भविष्यवाणी करने का रिकॉर्ड रहा है। भारत में ये मॉडलर्स न सिर्फ दूसरी लहर का आंकलन करने में विफल साबित हुए बल्कि इसका भी कोई प्रमाण नहीं है कि अब इनके पास भविष्य को समझने के उपकरण हैं।

कुछ मामलों में ये मॉडल्स न सिर्फ मूल रूप से खराब विज्ञान को दर्शाते हैं, बल्कि इसे उन मॉडलर्स द्वारा बढ़ावा दिया जाता है जिन्होंने वैज्ञानिक प्रक्रिया में  अपनाए जाने वाले जरूरी कदमों से दूरी बनाने का रास्ता चुना है। जिस मॉडल का सबसे अधिक इस्तेमाल होता है उसे “कंपार्टमेंटल मॉडल” कहते हैं। इसे जनसंख्या को हिस्सों में बांटकर बनाया गया है। एक सरल मॉडल के उदाहरण में देखे तो, जनसंख्या को एक अतिसंवेदनशील समूह में विभाजित किया जा सकता है, एक संक्रमित समूह में विभाजित किया जा सकता है और तीसरा जोकि संक्रमण से उबर चुका है। जाहिर है कि और भी समूहों को शुरू कर इस मॉडल को और भी बेहतर किया जा सकता है। इसके बाद मॉडलर्स हर ग्रुप में लोगों की संख्या बदलने की दर के लिए कुछ नियमों को अपनाते हैं। उदाहरण के लिए संक्रमित और अतिसंवेदनशील लोगों के बीच बातचीत के नियंत्रण दर के अनुसार संक्रमित समूह की संख्या बढ़ सकती है।

सरलीकरण विज्ञान का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। जहां हम हमेशा एक प्रणाली की गतिशीलता के “आवश्यक पहलुओं” को अलग करने और अनावश्यक जानकारी को त्यागने की कोशिश करते हैं। हालांकि, मॉडलर्स के द्वारा किए गए सरलीकरण महामारी की जटिलताओं को समझने में सक्षम नहीं होते हैं। अति महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय समाज को कुछ सजातीय इकाइयों के रूप में सटीक रूप से अनुमानित नहीं किया जा सकता है। यहां तक कि कुछ विवरण जिनका मॉडलर्स ध्यान रखते हैं वे अपने वर्ग के पूर्वाग्रहों को दर्शाते हैं। वहीं कुछ मॉडल उम्र के आधार पर आबादी को वर्गीकृत करने की कोशिश करते हैं लेकिन ज्यादातर मॉडल आय असमानताओं को नजरअंदाज करते हैं। लेकिन भारत जैसे देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर असमान पहुंच और ”सोशल डिस्टेंसिंग” का अनुसरण करने के लिए ज्यादातर लोगों के पास पर्याप्त संसाधन का न होना,कोई गैरजरूरी जानकारी नहीं है जिसे शुरुआती चरण में अनदेखा किया जाए। इन सामाजिक वास्तविकताओं की उपेक्षा करने वाले मॉडलर्स के चलते ही भारतीय सरकार के पिछले साल के कुनियोजित लॉकडाउन का आगमन हुआ। यहां तक कि वायरस में म्यूटेशन जैसी जैविक घटना जो दूसरी लहर के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है वह इनके ज्यादातर मॉडल्स में जिम्मेदार नहीं हैं।

इन बुनियादी खामियों का इस्तेमाल वैश्विक महामारी के लिए इस्तेमाल हुए मॉडल में हुआ है। ये मॉडल्स दूसरी परेशानियों से भी घिरे हुए हैं। कई दफा मॉडलर्स अपने मॉडल्स का विवरण देने के लिए ”स्टेट ऑफ द आर्ट” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अपने काम को असल की तुलना में अधिक आकृर्षित दिखाने का ये एक कपटी तरीका है। असल में, ऐसे मॉडल्स में इस्तेमाल हुए समीकरण सिर्फ एक साधारण ”साधारण अंतर समीकरण” होते हैं। विद्यार्थियों को कंप्यूटर पर ऐसे समीकरणों का समाधान करना स्नातक के फिजिक्स या गणित के कोर्स में सिखाया जाता है। इसलिए तकनीकि नजरिए से, जिस मॉडल को एडवांस होने के नाम पर ख्याति मिली वह अंडरग्रेजुएट साइंस प्रोजेक्ट की तुलना में अधिक एडवांस नहीं है।

दूसरा, आमतौर पर मॉडलर्स के पास सरलीकृत विवरण में मापदंडो को ठीक करने के लिए प्रत्यक्ष डाटा तक नहीं होता है। वे महामारी के प्रसार पर उपलब्ध डाटा से इन मापदंडों को “बैक कैलकुलेट” करने की कोशिश करते हैं। लेकिन उपलब्ध आंकड़े बहुत विरल हैं । इसलिए, मॉडलर्स जो कई प्रभावों के लिए लेखांकन की डींगे हांकते हैं और अपने मॉडल में कई मापदंडों को पेश करते हैं, उनके पास अपने मापदंडों को ठीक करने के लिए पर्याप्त डाटा नहीं होता है। वे अपने मापदंडों के लिए सब्जेक्टिव विकल्प अपनाने के लिए मजबूर होते हैं। इस वजह से उनके अनुमान भी सब्जेक्टिव ही होते हैं।

तीसरा, भारत में जो डाटा मौजूद है उसमें गंभीर दिक्कत है। केस की असल संख्या का पता लगाना बहुत ही कठिन होता है क्योंकि कई सारे संक्रमण टेस्ट के द्वारा कभी पकड़े ही नहीं गए। लेकिन यह भी साफ है कि मौतों को भी कम गिना गया है। मॉडलर्स के लिए इस त्रुटिपूर्ण डाटा को सही करना तकरीबन नामुमकिन है और इसलिए ये खामियां उनके निष्कर्ष के माध्यम से प्रचारित होती हैं। इन सबका यही मतलब है कि ये गणितीय मॉडल्स एक उपकरण के तौर पर कुछ गुणात्मक अंतर्ज्ञान हासिल करने में लाभकारी हो लेकिन न तो थ्योरी और नाही मौजूद डाटा वैश्विक महामारी का विस्तृत आंकलन करने में सक्षम है।

इसके अलावा ऐसे मॉडल्स से निकले ”नीति निर्देश” में व्यक्तिपरक विकल्प शामिल हैं । इसलिए वे मॉडलर्स के सामाजिक और वर्ग पूर्वाग्रहों से प्रभावित होते हैं और उन्हें “उद्देश्य” या “तटस्थ” नहीं माना जाना चाहिए। इन तथ्यों को अपनाने की जगह इस समूह के कुछ सदस्यों ने बुनियादी वैज्ञानिक मानदंडों को त्यागने का विकल्प चुना है । वैज्ञानिक विधि का एक समय परीक्षण तत्व यह है कि यदि प्रयोग सिद्ध डाटा बार-बार किसी सिद्धांत या मॉडल के विपरीत होता है तो मॉडल को खारिज कर दिया जाता है।

लेकिन पिछले एक साल में महामारी की भविष्यवाणी करने में उनकी विफलता का मॉडलर्स पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। इसका एक उदाहरण भारत सरकार के संरक्षण में विकसित तथाकथित “सुपरमॉडल” है । इस मॉडल ने वैश्विक महामारी के पहली लहर को 6 चरणों में विभाजित किया और हर एक चरण के लिए चार मानदंड निश्चित किए जिससे कुल 24 मानदंड हो गए।

मौजूदा डाटा इतने सारे मापदंडों को ठीक करने के लिए अपर्याप्त है। आश्चर्यजनक बात नहीं है कि इन मॉडलर्स द्वारा लगाए गए ये अनुमान पूरी तरह से गलत हैं। एक पेपर में मॉडलर्स ने दावा किया है कि ”भारत शायद एकमात्र ऐसी प्रमुख अर्थव्यवस्था है जो सही रणनीति बैठाने में कामयाब साबित हुआ है” और ”इस निर्णय के चलते कई सारे महत्वपूर्ण बिंदु अनदेखे हो गए।”

सरकार यही सुनना चाहती थी लेकिन दूसरी लहर ने यह दिखा दिया कि यह सच से काफी दूर है। इस मॉडल के स्पष्ट रूप से विफल होने के बावजूद इस मॉडल के लेखकों में से एक प्रोफेसर मनिंद्र अग्रवाल ने सोशल मीडिया पर भविष्यवाणियां करना जारी रखा है। ये भविष्यवाणियां किसी खास को फायदा पहुंचाने के लिए चल रही हैं।

विज्ञान में एक और खास तरह का चलन है कि जनता तक परिणाम पहुंचाने से पहले उसे अन्य वैज्ञानिकों को दिखाया जाता है। यहां पर हम चले आ रहे ”समकक्ष समीक्षा ” की बात नहीं कर रहे हैं जो महामारी के समय लंबा समय ले सकता है। हम सिर्फ उस प्रैक्टिस की बात कर रहे हैं जिसमें पर्याप्त जानकारी से पूर्ण वैज्ञानिक प्रीप्रिन्ट दूसरे वैज्ञानिकों के सामने रखा जाता है जिससे वे मॉडल का पुनर्निर्माण कर सके और मॉडल की आकलन को जांच सके।

इसी परिवेश में, अशोका विश्वविद्यालय के प्रो. गौतम मेनन द्वारा करण थापर के एक इंटरव्यू में किए गए अनुमान के बारे में बात करते हैं। उनके मुताबिक, ”मध्य मई में दूसरी लहर का पीक दिख जाएगा। इस दौरान पांच-छह लाख केस हर दिन आएंगे।” प्रो. मेनन यह नहीं बताया कि आखिर इस अनुमान के लिए उन्होंने किस मॉडल का इस्तेमाल किया। हमने महामारी पर मेनन और अशोका यूनिवर्सिटी की उनकी टीम द्वारा की गई गणना पर कुछ मीडिया संदर्भों को भी खंगाला। वैसे तो प्रो. मेनन सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव हैं और उन्होंने कुछ साक्षात्कार भी दिए हैं लेकिन हम प्रो. मेनन द्वारा लिखित एक भी एकेडमिक पेपर या प्रीप्रिंट को ढूंढने में नाकामयाब रहे। मेनन आखिर हम इस तरह की गणना का विवरण कहां पढ़ सकते हैं।

शायद प्रो. मेनन जिस मॉडल का जिक्र कर रहे थे वह “इंड्ससिम” है। जिसे विभिन्न संस्थानों के वैज्ञानिकों के एक छोटे समूह ने तैयार किया है। इस समूह ने कुछ परिणाम मीडिया को भी दिए हैं। हालांकि मॉडल का वर्णन करने वाले प्रीप्रिंट को नहीं लिखा गया। इस मॉडल का बुनियादी संरचना है: इंड्ससिम एक कंपार्टमेंटल मॉडल है जिसके करीब 14 मापदंड हैं। इस मॉडल की वेबसाइट खुद ही बताती है कि मापदंडों की एक बड़ी संख्या के सहारे भविष्यवाणियों की एक विस्तृत श्रृंखला प्राप्त की जा सकती है।

हालांकि,ये जानकारी प्रो. मेनन के अनुमानों के पुननिर्माण के लिए नाकाफी है क्योंकि हम ये नहीं जानते हैं कि मॉडल में कौन से डाटा का इस्तेमाल हुआ है या कौन सी प्रक्रिया है जिसका उपयोग इसके मापदंडों को फिट करने के लिए किया गया था।

यह देखने के लिए कि यह महत्वपूर्ण क्यों है, इसके लिए हमें पिछली जुलाई में चेन्नई में महामारी से जुड़े कोर्स पर समूह द्वारा ”स्लाइड प्रेजेंटेशन” के रूप में जारी किए गए आकलन को फिर से देखने की जरूरत है। हालांकि स्लाइड में अधिक जानकारी नहीं थी, फिर भी यह तुरंत समझ आ गया कि इस गणना में गंभीर और बुनियादी गलतियां हैं। चेन्नई की आबादी को 46 लाख लिया गया था जबकि इसकी असल जनसंख्या इसकी तुलना में काफी अधिक है। इस गलती का सबूत मॉडल के सबूत में देख सकते हैं। (स्लाइड लेबल v1.3a) इसमें गलत जनसंख्या मुख्य टेक्स्ट में दिया गया है और उसका सुधार ब्रेकट में दिया गया है। इस मामले में भी समूह ने अपने परिणामों को जांच के लिए दिए जाने से पहले ही प्रेस रिलीज जारी करने की जल्दी दिखाई और यह गलत आंकड़ों के साथ प्रेस रिलीज लोग आज भी देख सकते हैं।

हम यह कैसे कह सकते हैं कि प्रो. मेनन द्वारा किए गए हाल के अनुमान में इसी तरह के गलत अनुमान नहीं है? दुर्भाग्यवश, पारदर्शिता के बुनियादी मानदंडों का पालन करने में विफलता का मतलब है कि इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है ।

बहुत लोग वैज्ञानिकों को विश्वसनीय जानकारी का स्रोत मानते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि गणितीय मॉडलर्स जब भविष्यवाणी करते हैं तो वे सिर्फ अटकले लगा रहे है होते हैं। कोई भी जानकार व्यक्ति उपलब्ध डाटा और रुझानों की जांच कर सकता है और अंदाजा लगा सकता है जो उतना ही अच्छा और बुरा होने की संभावना है। जिन मॉडलरों ने भारत में “वैज्ञानिक ज्योतिषी” की भूमिका निभाई है, वे न केवल लोगों को गुमराह कर रहे हैं बल्कि वे विज्ञान की विश्वसनीयता को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं और उन अच्छे काम अनदेखा करवा रहे हैं जो अन्य वैज्ञानिक, महामारी का मुकाबला करने के लिए कर रहे हैं।

(लेखक द्वय क्रमशः चेन्नई मैथमेटिकल इंस्टीट्यूट और द इंटरनेशनल सेंटर फॉर थ्योरिटिकल साइंसेज़ (बेंगलुरू) से जुड़ हुए भौतिकविज्ञानी हैं। लेखक खुद मॉडर्स होने का दावा नहीं करते और यह लेख संबंधित  विषय के वैज्ञानिकों और इस दायरे से बाहर के नागरिकों को ध्यान में रख कर लिखा गया है।) 

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