WU विशेषः श्रम क़ानून और पर्यावरण क़ानून क्यों ख़त्म कर रही है मोदी सरकार? समझने के लिए पूरा पढ़ें

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By दिव्या और रनी

भारत को दुनियाभर के मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की भाजपा सरकार की कोशिशें रंग लाती दिख रही हैं। एप्पल इंक ने दुनियाभर में अपने सबसे ज्यादा बिकने वाले मोबाइल फ़ोन मॉडल आईफोन-11 का भारत में निर्माण शुरू कर दिया है।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने अमरीकी मैन्यूफैक्चर को भरोसा दिया है कि भारत में निवेश के दौरान उन्हें किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं होगी, श्रम क़ानूनों को लेकर तो बिल्कुल भी नहीं!

हाल ही में यूएस इंडिया बिज़नेस कॉउन्सिल की बैठक में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि भारत में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने के लिए सरकार ने भौगोलिक सूचना तंत्र के तहत एक लाख हैक्टेयर भूमि की पहचान कर ली है।

6 राज्यो में में स्थिति इस भूमि को भारत सरकार अमेरिकीयों के लिए अधिग्रहित करेगी। उन्होंने अमेरिकी प्रतिनिधियों को भरोसा दिलाया कि सरकार बिज़नेस सेटअप करने में कई महत्वपूर्ण बदलाव करने जा रही है।

बिज़नेस सेटअप के लिए सिंगल विंडो सिस्टम शुरू होने जा रहा है और सिर्फ एक फार्म भर कर बिज़नेस शुरू किया जा सकेगा। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेडकर ने इनवायरोन्मेंट इंपैक्ट एसेसमेंट 2020 यानी पर्यावरण पर होने वाले नुकसान का आंकलन (EIA) का नया ड्राफ्ट तैयार कर के इस योजना को हरी झंडी दिखा दी है।

कानून में बदलाव की असली हकीक़त क्या है?

इस घटना क्रम के पीछे की हकीकत का सिलसिला दिसंबर 2019 में चीन से शुरू हुए कोरोना वायरस ने ज्यादा गहरा दिया। वैसा तो इसकी कड़ी पिछले साल के शुरुआत से ही हो गयी थी।

जब अमेरिकी कंपनियो (गूगल) ने चीनी इंटरनेट कंपनी (huwaei) पर प्रतिबंध लगा दिया था और साथ ही में सभी अमेरिकी समर्थन प्राप्त देश ब्रिटेन,यूरोपीय देशों ने भी डाटा का गलत इस्तेमाल करने के आरोप में इसे प्रतिबंधित कर दिया था।

चीन ने भी जवाबी कारवाई करते हुए अमेरिका को सोयाबीन का निर्यात बंद कर दिया। अमेरिका को 70% सोयाबीन चीन निर्यात करता है और अमेरिकी व्यंजनों में सोयाबीन मुख्य भूमिका निभाता है।

दोनों साम्राज्यवादी देशों के बीच ये व्यापार युद्ध ने व्यापकता हासिल कर ली , जिसका नतीजा कोरोना के समय में और भयंकर हो गया है।

कोरोना ने अमेरिका की आर्थिक ढांचे को तहस नहस कर दिया है वहीं चीन ने कोरोना से बचाव करते हुए स्थिति को संभाल लिया और व्यापार क्षेत्र में चिकित्सीय उपकरणों को निर्यात कर अपना व्यापारिक विस्तार किया।

एशिया महाद्वीप के सभी देशों के साथ व्यापार ने चीन पर कब्जा कर व्यापारिक पलड़े को अपने पक्ष में कर लिया जिससे अमेरिका व्यापार संघ में बौखलाहट पैदा कर दी है।

इसी व्यापारिक युद्ध ने दुनिया में अमेरिकी शाख को बहुत नुकसान पहुचाया है ,अमेरिका के बाजार पर चीन ने कब्जा जमाने की कवायद और तेज कर दी है। अमेरिका अपने कच्चे माल को वस्तु का रूप दने का कार्य चीन से कराता है।

दुनिया में सबसे सस्ते मजदूर मुहैया चीन कराता है जिस वजह से वस्तु के लागत मूल्य में बहुत कम होती है और मुनाफा ज्यादा।

लेकिन चीन की इस व्यापारिक चुनौती से अमेरिका अपनी मैन्यूफैक्चर्स यूनिट चीन से हटा कर कहीं और स्थापित करना चाहता है।

भारत इसी मौके का फायदा उठाते हुए ललचाई जीभ से मौका पाने के लिए मैदान में है। अमेरिकी कंपनी को लुभाने के लिए उनके लिए हर स्तर पर सुविधा मुहैय्या कराने का प्रयास भारत सरकार कर रही है।

श्रम एवं पर्यावरण कानूनों में बदलाव अमेरिकी कम्पनी की पहली जरूरतों में से एक था।

जिसे भारत सरकार ने कोरोना काल में गुप-चुप तरीकों से लागू कर दिया । सबसे सस्ते मजदूर और बिना किसी यूनियन की मांग, पयार्वरण प्रोटेक्शन एक्ट में बदलाव अमेरिकी कमापनियों को भारत सरकार विदेश नीति की थाली में परोस कर दे रही है।

पर्यावरण संरक्षण कानून में संशोधन

1984 के भोपाल गैस त्रासदी ने 20 हजार लोगों की जान ले ली थी और करीबन 6 लाख लोगों को अपंग बना दिया था। फैक्ट्री में methylisocynode नामक अत्यंत ज़हीरी गैस के रिसाव से ये सब हुआ था।

इस घटना के बाद सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं ने सरकार पर दबाव बनवाकर पर्यावरण प्रोटेक्शन एक्ट 1986 लागू करवाया था।

जिसकी वजह से किसी भी नए प्रोजेक्ट के शुरू होने से पहले उस प्रोजेक्ट की वजह से पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव का आंकलन किया जाता है।

अगर प्रोजेक्ट पर्यावरण को ज्यादा नुकसान नही पहुंचाता था तभी भारत सरकार प्रोजेक्ट को शुरू करने की इजाजत देती थी।

लेकिन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेडकर ने ( EIA2020) का एक ड्राफ्ट तैयार किया है, जिसमें अब प्रोजेक्ट को शुरू करने के लिए कोई प्रभावीय आंकलन की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं रह जाएगी।

प्रोजेक्ट के शुरू होने के बाद भी इसका आंकलन कर सकते हैं। भले ही बाद में नतीजे ख़राब मिले, चलते प्रोजेक्ट को सरकार बंद नहीं करेगी। इसमें “सरकार का पैसा बर्बात होगा ” वाला तर्क पर्यावरण के नुकसान को भी सही साबित कर देगा।

हम बखूबी जानते हैं कि पिछले वर्ष प्रकृति ने किस तरह से इंसानों द्वारा किये गए अत्याचार को बयां किया। ऑस्ट्रेलिया और अमेज़न के लाखों हैकटेयर जंगल जलकर राख हो गए, चक्रवातों की दुनिया में बाढ़ आ गयी और न जाने कितनी प्राकृतिक आपदाएं हमारी पृथ्वी को झेलनी पड़ीं।

इस सभी से कोई सीख न लेते हुए हमारी सरकार ने पर्यावरण कानूनों को कंपनी के मुनाफे के लिए और ढीला कर दिया।

जहां आज उन कानूनों को और सख्त करने की जरूरत थी, वहां ऐसा कर प्रकृति और आम जन की जिंदगी से खिलवाड़ करना सही साबित नहीं होगा।

नए ड्राफ़्ट पर एक नज़र

1. किसी भी फैक्ट्री या प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले एक समिति को उस प्रोजेक्ट की वजह से होने वाले प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए घटित किया जाता था। प्रोजेक्ट के लगने वाली जगह पर फैक्ट्री पर्यावरण और आमजन को किस हद तक प्रभावित करेगी।

क्या वो प्रभाव नकरात्मक होगा या सकारात्मक ? अगर नकारात्मक होगा तो समिति नकारात्मक बिंदु को कम कैसे किया जाए इस पर विचार करेगी, और अंततः अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपेगी।

फिर सरकार फैसला करेगी कि प्रोजेक्ट को शुरू किया जाए या नहीं। लेकिन अब ऐसी कोई समिति बनाने की ज़रूरत सरकार नहीं समझती है , प्रोजेक्ट को शुरू करने के बाद भी इस प्रक्रिया को अंजाम दिया जा सकता है।

2. सरकार प्रोजेक्ट के शुरू होने से पहले वहां के क्षेत्रीय लोगों से सलाह मशविरा लेती थी, और अगर आमजन प्रोजेक्ट का विरोध करते थे तो ऐसी परिस्थिति में अपने कदम पीछे भी कर लेती थी। इस सोचने – विचारने के लिए आमजन के पास 30 दिन का वक्त होता था जिसे अब घटाकर 20 दिन कर दिया गया है।

3. आमजन अब किसी भी तरह का सवाल किसी प्रोजेक्ट की शुरुआत पर सरकार से नहीं कर सकेंगे। अगर कोई सरकार की किसी परियोजना के खिलाफ दुष्प्रचार करता है , वह कानूनी कारवाई के लिए तैयार रहे।

4. सरकार किसी भी परियोजना को शुरू करने के मकसद को आमजन से साझा करना अब आवश्यक नहीं समझती।
राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क देकर आमजन से यह अधिकार भी सरकार ने छीन लिया।

5. सीमा पर लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल के 100 किमी के अंदर आने वाली जमीन बिना किसी इजाजत के सरकार अधिग्रहित कर सकती है। और आमजन को इस पर कोई सवाल पूछने का अधिकार नहीं होगा। दक्षिण पूर्व के सारे राज्य इस सीमा के अंतर्गत आते है। खदानों, फैक्टरियों को स्थापित करने के लिए इन राज्यो की सरकार से भी केंद्र सरकार बिना किसी इजाजत के प्रोजेक्ट को शुरू कर सकती है।

पर्यावरण कानून के विरोध पर मुकदमा

इसी EIA 2020 ड्राफ्ट के विरोध में सामाजिक और पर्यावरण के लिए काम करने वाले संघटनो ने इसके ख़िलाफ़ हाई कोर्ट में अपील कर सरकार से फिर से इस पर विचार करने को कहा।

हाई कोर्ट ने सरकार को आदेश देते हुए 11 अगस्त तक जनता को अपना पक्ष रखने के समय दिया है। इसलिए देश के छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पर्यावरण मंत्रालय को अपनी मांगे पत्र के माध्यम से भेजी है, लेकिन सरकार ने इस मसले पर समझ रखने वाले NGO को कानूनी नोटिस भेज कर UAPA कानून के तहत कारवाई करने के आदेश दिए हैं।

पर्यावरण के लिए चिंतित कई सारे NGO जिसमें friday for future जिसे ग्रेटा थंबर्ग चलाती हैं, there is no earth, let india breath को दिल्ली पुलिस ने ‘गोरा क़ानून’ UAPA के तहत सरकारी आदेश भेजा है कि आप इस मसले में दखलंदाजी न करें।

ऐसा करके आप देश की संप्रभुता और शांति को भंग करने का प्रयास कर रहे हैं। नोटिस की वजह पर सवाल करते ही दिल्ली पुलिस ने इसे टाइपिंग एरर बता कर इस विवाद से अपने पीछा छुड़ाने की कोशिश की।

श्रम कानून पर तलवार

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए सकरार ने श्रम कानून को भी कम्पनी के ज्यादा मुनाफे के लिए और लचीला कर मजदूरों की हालत को और खस्ता बना दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश पास कर उद्योगों के स्वामियों को यानी पूंजीपतियों को अगले तीन साल के लिए निम्नलिखित श्रम कानूनों में छूट दी है । श्रम कानून जो अगले 3 साल तक उत्तर प्रदेश में लागू नहीं होंगे , इनका क्या असर मजदूरों पर होगा जरा देखिए ;

1. अब कोई भी फैक्ट्री मालिक न्यूनतम वेतन से कम पर किसी को मजदूरी करा सकेगा ,चाहे तो बिना मेहनताना चुकाए भी काम करा सकेगा।

2. अब एक ही काम के लिए श्रमिकों को अलग – अलग वेतन दिया जा सकने में भी कोई अपराध नहीं होगा। जो मजदूर ज्यादा स्किल जानता होगा उसे कम और जो कम उसे अधिक वेतन देना अब गलत नहीं समझा जाएगा।

3. अब मजदूरों को संगठित होने , यूनियन बनाने और अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों और शोषण के विरुद्ध सामूहिक रूप से आवाज उठाने का कोई अधिकार नहीं होगा। जो वर्तमान ट्रेड यूनियनें हैं उन्हें भी जो अधिकार और सुरक्षाएँ प्राप्त हैं उनका वे उपयोग नहीं कर सकेंगी।

4. औद्योगिक नियोजन ( स्थायी आदेश ) अधिनियम का मसला जिसका सीधा अर्थ है कि स्टैंडिंग ऑर्डर्स जो कि इस अधिनियम के अन्तर्गत बने हुए होते हैं और जिनसे सेवा शर्ते प्रभावित होती हैं , वे भी लम्बित रहेंगे और उसके लाभ श्रमिकों को प्राप्त नहीं होंगे ,फैक्ट्री मालिक अपनी मनमानी कर सकेंगे।

5. श्रमिकों के सारे विवाद उद्योगिक विवाद अधिनियम के अन्तर्गत तय होते हैं । इस बीच श्रमिक कोई मांग नहीं उठा सकेंगे । किसी श्रमिक को नौकरी से निकाल दिया गया तो भी वह इस अवधि में अपना विवाद न तो उठा सकेगा और न ही उसे श्रम न्यायालय में पेश कर सकेगा।

6. कारखाना अधिनियम के अन्तर्गत श्रमिकों के काम के घण्टे , अवकाश , मध्यान्ह अवकाश , सुरक्षा व्यवस्थाएँ , कैण्टीन सुविधा प्राप्त होती थी, अब मजदूरों को इन सुविधाओं से भी वंचित रहना पड़ेगा।

7. ठेका श्रमिकों की सभी सुविधाएं समाप्त कर दी जाएंगी , उनसे गुलामों की तरह काम लिया जा सकेगा।

8. अन्तरराज्यीय प्रवासी मजदूर अधिनियम के अन्तर्गत दूसरे राज्यों से आए श्रमिकों को जो सुविधाएँ प्राप्त होती हैं उनसे वे वंचित हो जाएंगे।

9. कर्मकार भविष्य निधि अधिनियम के अन्तर्गत कर्मचारियों और नियोजकों से प्राप्त अंशदान से भविष्य निधि बनती है । अब नियोजक अपना अंशदान नहीं भी देंगे तो कोई कार्रवाई नहीं होगी। कर्मकार अपनी भविष्य निधि से वंचित हो जाएगा।

10. कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम के अन्तर्गत श्रमिकों को चिकित्सा सुविधाएँ और चोट लगने पर मुआवजा आदि मिलता है और पेंशन मिलती है उससे श्रमिक वंचित कर दिये जाएंगे।

11. बोनस ,श्रमिकों को वर्ष में साल भर की फैक्ट्री मालिक की बैलेंस शीट के मुनाफे के आधार पर न्यूनतम बोनस प्राप्त होता है अब श्रमिक उससे वंचित रह जाएंगे।

12. यूँ तो असंगठित श्रमिकों के लिए कोई सुविधा नहीं है । थोड़ी – बहुत राहत जो असंघटित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम प्रदान करता था वह भी अब छीन ली गयी है । इस अध्यादेश से उत्तर प्रदेश में श्रमिकों की स्थिति गुलामों जैसी हो जाएगी। प्रदेश में श्रमिकों को पूरी तरह मालिकों के रहमोकरम पर जीना पड़ेगा। पूंजीपति मजदूरों का मनचाहा शोषण कर सकेंगे ।

दोनों कानूनों में किये गए बदलाव आमजन की ज़िंदगी को बुरी तरह प्रभावित करेंगे। श्रम कानूनों को यूं लचीला बनाकर सरकार श्रमिकों को मौत के मुह में धकेल रही है। श्रमिको और आमजन के पास शरीर तोड़ मेहनत करने के बाद न स्वच्छ वातावरण होगा न पीने के लिए पानी। अब श्रमिकों के लिए ये कहना कोई महिमामंडन करना नहीं होगा कि उनके लिए एक तरफ कुआ है और दूसरी तरफ खाई।

(दिव्या और रनी जामिया विवि के शोध छात्र हैं।)

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