कभी सोवियत संघ का अंग रहा यूक्रेन अब अमेरिका के लिए क्यों हो गया अहम?

https://www.workersunity.com/wp-content/uploads/2022/01/joe-biden-and-putin.jpg

By कमल सिंह

यूक्रेन साम्राज्यवादी शक्तियों की प्रतिद्वंद्वता का अखाड़ा बना हुआ है। साम्राज्यवाद का गहराता संकट और अफगानिस्तान में अमरीकी साम्राज्यवाद की पराजय, दुनिया में कच्चे माल के स्रोतों पर कब्जे कि होड़, बाजारों को हड़पने के लिए छीना-झपटी के साथ साम्राज्यवाद के अंतर्विरोध और तेज हो रहे हैं। दुनिया एक ध्रुवीय से बहुध्रुवीय में बदल रही है अमेरिका के शासक इस तथ्य को हजम नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें अब भी उम्मीद है, कार्यनीति में कुछ बदलाव करके अमेरिका अपनी सरगनाई कायम रख सकता है। लेकिन अन्य साम्राज्यवादी शक्तियां दुनिया के संसाधनों और बाजार में अधिक हिस्सेदारी, प्रभाव क्षेत्र पुनर्विभाजन के लिए प्रयत्नशील हैं।

इस समय यूक्रेन को लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद और रूसी साम्राज्यवाद के बीच टकराव काफी तेज है। हालांकि, अमेरिका अपना ध्यान मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में उभर रहे चीन पर केंन्द्रित करना चाहता है लेकिन पूरब में रूस की घेराबंदी के लिए उसने नाटो का जो जाल बिछाया हुआ है, उसकी हिफाजत भी उसे करना है। सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के साथ एक ध्रुवीय विश्व के पतन का वक्त गोर्बाचेव-येल्तसिन का दौर था। उस समय रूस को पीछे हटना पड़ा था। पुतिन के वर्तमान दौर में परिस्थिति बदली है। वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के प्रति अधिक सचेत हैं।

वह अब नाटो सैन्य अड्डों को अपनी सीमाओं से पीछे धकेलने के लिए प्रयास कर रहा है। सोवियत गणराज्यों में अमेरिका ने वहां पैर पसारे थे, वह अब रूस को बर्दाश्त नहीं है। जार्जिया की सेनाएं 2008 में रूसी क्षेत्र अबकाज़िया और दक्षिण ओसेशिया में आगे बढ़ आयी थीं उसके खिलाफ रूस की सेनाओं ने कार्रवाई की तो जवाब में अमेरिका कुछ नहीं कर सका। यह अमेरिका की सरगनाई.. एकध्रुवीय विश्व के पतन की सूचना थी।

बहरहाल, प्रभुत्व दरकने लगता है तो इसे कबूल करना सहज नहीं होता। अफगानिस्तान में पराजित होने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद यह जतलाने की कोशिश कर रहा है, वह हारा नहीं है बल्कि उसने अपने वैश्विक हितों और उभरती चुनौतियों का सामना करने के लिए अफगानिस्तान से सेना हटाई है। जिस समय अमेरिका अपने कर्मियों को हवाई जहाज से निकालने के लिए तालिबान के साथ बातचीत कर रहा था, अमेरिका के उप-राष्ट्रपति एशिया के देशों का दौरा करके इस क्षेत्र के लिए अमेरिकी प्रतिबद्धता का यकीन दिला रहे थे। इसके कुछ ही बाद, आस्ट्रेलिया-बरतानिया-अमेरिका (AUKUS) गठबंधन की घोषणा, दक्षिण पूर्व और पूर्वी एशियाई देशों के शासक अभिजात वर्ग के लिए संदेश थी कि चीन के खिलाफ अमेरिका उनके साथ है।

ये युद्ध तेवर, उन समर्थकों को आश्वस्त करने की कोशिश थी जो अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के कारण अशंकित थे। उनका अमेरिका सैन्य प्रतिबद्धता और क्षमता पर भरोसा डोलने लगा था। जैसा कि कहा जा चुका है, “अफगानिस्तान से हार के तुरंत बाद इस सैन्य गठबंधन की घोषणा का मकसद ताइवान को यकीन दिलाना है कि अमेरिकी उसकी सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। यहां अमेरिका समर्थक शासकों में से आशंकित एक वर्ग है जो मुख्य भूमि चीन के साथ घनिष्ठ संबंधों का समर्थन करता है।” (एनडी, अक्टूबर 2021)

यूक्रेन को लेकर भी यही स्थिति है। यूक्रेन के शासक वर्गों को पश्चिमी शक्तियां विशेष रूप से अमेरिकी साम्राज्यवाद आश्वस्त करना चाहते हैं, रूस के विरुध्द वे उनके साथ हैं। रूस और यूक्रेन के बीच अंतर्विरोध के ऐतिहासिक कारण भी हैं, लेकिन सोवियत यूक्रेन के बाद के दौर में यहां कुलीन वर्ग के विकास के साथ अंतर्विरोधों में नया विकास हुआ है। यूक्रेन का कुलीन वर्ग अपनी संपत्ति बढ़ाने के लिए पूरब (रूस) और पश्चिम (अमेरिका और पश्चिमी यूरोप) दोनों की ओर देख रहा हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी की नजर भी इसी वर्ग पर है।

यहां साम्राज्यवादी दुनिया के अन्य दो केंद्र चीन और यूरोपीय संघ की भी भूमिका है। वे भी सहयोगियों के साथ अपना हित साधने में भी लगे हैं। जहां तक पश्चिमी यूरोप का ताल्लुक है, जॉर्ज बुश की “एकतरफावादी” नीति और डोनाल्ड ट्रम्प की “अमेरिका फर्स्ट” की रणनीति, दोनों ने पश्चिमी यूरोप की अहमियत को कम किया गया। बुश प्रशासन के दौरान “पुराने यूरोप के खिलाफ नया यूरोप” का फिकरा उछाला गया था। अब पश्चिमी यूरोप की महत्वपूर्ण तकतें – जर्मनी और फ्रांस – रूस और अमेरिका दोनों को ज्यादा अहमियत ना देकर वर्तमान विवाद में हस्तक्षेप कर रही हैं।

पश्चिमी मीडिया की तरह ही भारत सहित दुनिया भर का मीडिया यूक्रेन के मुद्दे को गलत तरीके से पेश कर रहा है। यूक्रेन यूरोप के केंद्र में स्थित है। पश्चिमी देशों की लालची निगाह कफी अर्से से इस क्षेत्र पर है। यहां उपजाऊ कृषि भूमि (यूरोप का सबसे उपजाऊ क्षेत्र) और विशाल खनिज संसाधन हैं। यूरोपीय युद्धों के पहले के दौर से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक, यूक्रेन की खास अहमियत रही है। यहां बसे यूक्रेनियन, रूसी और अन्य कई राष्ट्रीयता से संबंधित लोगों का यूक्रेन समृद्धि में योगदान है। यूक्रेन का पूर्वी भाग खनिज संपदा से समृद्ध व उद्योग प्रधान है, दक्षिणी भाग काला सागर का तटवर्तीय होन‌े के कारण खास महत्व तखता है। इन दोनों क्षेत्रों में रूसियों का अनुपात अधिक है। वैसे भी यूक्रेन में रूसियों की काफी संख्या है, रूसी भाषा यहां काफी प्रचलित है, यूक्रेनियन भी बड़ी तादाद में इसे बोलते हैं। इस मिले-जुले समाज को पश्चिमी यूरोप के साथ एकीकृत करने और रूस के खिलाफ मोर्चाबंद करने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन लोकतांत्रिक यूक्रेन की राह में कई पेच हैं।

रूसी साम्राज्यवादी और अमेरिकी साम्राज्यवादी दोनों यूरोप पर प्रभुत्व के लिए यूक्रेन को महज एक मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। पश्चिमी शक्तियां लोकतांत्रिक यूक्रेन की बात करती हैं लेकिन वहां की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लगातार कमजोर कर रही हैं। सोवियत संघ 1991 में विघटित हुआ था। उस समय यूक्रेन उससे अलग हुआ। यूक्रेन में जिस अभिजात्य वर्ग का विकास हुआ था, गोर्बाचेव फिर येल्तसिन के नेतृत्व में रूस के सत्ता प्रतिष्ठान के साथ इस वर्ग के अच्छे संबंध रहे थे। एक-ध्रुवीय दुनिया की अवधि में पूर्वी यूरोप (वारसा संधि) के अधिकांश देशों में गुलाबी, नारंगी आदि रंग-बिरंगी “क्रांतियों” (colour revolutions) के माध्यम से सत्ता में आया वहां का संपन्न वर्ग पश्चिम साम्राज्यवाद के अनुचरों में बदल गया।

संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूर्व सोवियत गणराज्य- बाल्टिक देश, जॉर्जिया और यूक्रेन पर नजर टिकाई, वहां रूस विरोध को हवा दी। दिक्कत यह थी कि अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय बाजार संकट से गुजर रहे थे। पश्चिमी कंपनियां सस्ते श्रम के अलावा कोई वास्तविक लाभ अर्जित नहीं कर पाए। पूर्वी योरोप के ज्यादातर देश भी समाजिक उथल-पुथल के दौर में थे। वहां संकट के कारणों से आम जनता का ध्यान हटाने और पश्चिम समर्थक सत्ताधारी अभिजात वर्ग को मजबूत करने के मकसद से रूसीयों के विरोध में जातिवादी भावोन्मेष भड़काया गया।

यूक्रेन में, 2004-05 में रंगीन क्रांति (ऑरेंज रेवोल्यूशन) के दौरान रूस समर्थक यानुकोविच ने पश्चिम समर्थक युश्चेंको को चुनाव में पराजित किया। चुनाव में अनियमितताओं तथा मतदान में धांधली के आरोप लगा, धरना-प्रदर्शनों का दौर चला। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया। फिर चुनाव हुए, इस बार युश्चेंको को 52 प्रतिशत और यानुकोविच 44 प्रतिशत मत मिले। यूरोपीय निगरानी संस्था ने इसे निष्पक्ष चुनाव करार दिया। इन चुनावों में भी लगभग आधे यूक्रेनियन पश्चिम समर्थकों के विरोध में थे। राष्ट्रपति पद के लिए अगला चुनाव 2010 में हुआ। यानुकोविच की जीते, चुनाव की निष्पक्षता योरोपीय निगरानीकर्ताओं ने भी कबूल की। यानुकोविच यूक्रेन को यूरोपीय संघ में सम्मिलित किए जाने लेकिन रूस के साथ भी घनिष्ठ व्यापारिक संबंध कायम करने के पक्षधर थे। पश्चिमी देशों को यह मंजूर नहीं था। इस विरोधाभास के मूल में आर्थिक कारक थे। यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में विशाल औद्योगिक आधार के अपेक्षा उनकी दिलचस्पी वहां के खनिज संसाधनों तथा यूक्रेन के कृषि उत्पादों में थी। दूसरी ओर, रूस यूक्रेन के औद्योगिक और कृषि उत्पादों का एक मुख्य खरीदार था। इसके अलावा, यूक्रेन को पश्चिमी यूरोपीय देशों को रूसी गैस की आपूर्ति के लिए पारगमन शुल्क के रूप में बड़ी रकम मिलती थी। इसलिए रूस के साथ आर्थिक संबंध समाप्त करने के पक्ष में यूक्रेन में लोग नहीं थे।

यूरोपीय संघ यूक्रेन को अपने अनुकूल करना चाहता है। यूरोपीय संघ, यूक्रेन और रूस से संबंधित त्रिपक्षीय संबंध वार्ता का प्रस्ताव खारिज कर दिया गया। वहां 2014 में फिर सत्ता पलटी गई। यूक्रेन की राजधानी कीव स्थित यूरो स्क्वायर (Euromaidan) में विशाल प्रदर्शनों का सिसिला शुरु हुआ। इस अभियान का मकसद रूस व यूरेशिया के साथ आर्थिक संबंधों की जगह यूरोपीय संघ के साथ घनिष्ठ संबंध तथा यानुकोविच की सत्ता से बेदखली था। हिंसक प्रदर्शनों को पश्चिमी देशों के का खुला समर्थन हासिल था। अंतत: यानुकोविच को सत्ता छोड़नी पड़ी। पश्चिम समर्थक प्रदर्शनकारियों में सशस्त्र बलों के एक हिस्से के शामिल होने के बाद फरवरी 2014 में उसने यूक्रेन छोड़ दिया। इस बार “लोकतंत्र” या जनता की इच्छा जैसा कुछ आवरण नहीं, राष्ट्रवाद के नाम पर रूसियों और उनके हिमायतियों के खिलाफ फासिस्ट उन्माद था। यूक्रेन के इतिहास के एक दौर में हिटलर के नाज़ीवाद के समर्थन का दौर भी रहा है। वहां फिर फासिस्ट उभार आया।

वक्त बदल चुका था; यह 2005 नहीं 2014 था। रूस के शासक बखूबी समझते थे कि पश्चिमी देश यूक्रेन को रूस के साथ संबंध बनाए रखने कि इजाजत नहीं देंगे। उनकी रणनीति रूस के खिलाफ यूक्रेन का इस्तेमाल करना है। रूस ने रूसी जनसंख्या बाहुल्य, स्वायत्त गणराज्य की मांग के समर्थन के साथ क्रीमिया प्रायद्वीप को यूक्रेन से अलग करके रूस में मिलाने के लिए अपनी सेनाएं वहां रवाना कर दी। रूस में सम्मिलित होने के पक्ष में यूक्रेन में व्यापक बहुमत था। पश्चिम समर्थकों द्वारा हुई कई रायशुमारियों के जरिए भी इस तथ्य की पुष्टि हुई।

यूक्रेन के आर्थिक व राजनीतिक अध्ययन केन्द्र ने जनता कि राय जाने के लिए 2008 में एक सर्वेक्षण किया था। इसके अनुसार “क्रीमियनों में से 63.8 प्रतिशर लोग यूक्रेन से अलग हो कर रूस में सम्मिलित होना चाहते थे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2009 और 2011 में कई सर्वेक्षण कराए। क्रीमियनों में से 65 से 70 प्रतिशत बहुमत लोगों ने लगातार रूस में सम्मिलित होने का ही मत जाहिर किया।” युक्रेन में 2001 में की गई जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत क्रीमियाई रूसी नास्ल के थे। तथ्य यह भी है कि क्रीमिया 1783 से रूस का हिस्सा रहा है। वह 1955 में यक्रेन को हस्तांतरित किया गया था। उस समय क्रीमिया और रूस दोनों सोवियत गणराज्य के अंग थे। इसके बावजूद, पश्चिमी मीडिया कहानी गढ़ने में लगा हुआ है, उसके लिए ये सब ‘तुच्छ’ तथ्य हैं।

रूस के शासकों ने भी यूक्रेन के खनिज समृद्ध औद्योगिक केन्द्र डोनबास के अंतर्गत आने वाले पूर्वी यूक्रेन के डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों में विद्रोह को हवा दी। डोनबास कोयला खनन और धातु उद्योगों सहित उपभोक्ता मशीनों का बड़ा केंद्र है। यहां बड़ी तादाद में रूसी बसे हैं। मार्च 2014 के विद्रोह का दमन करने आई यूक्रेन की सेनाओं का जबरदस्त विरोध हुआथा। इसमें लगभग14000 लोगों की जान गई। यहां उत्पादित औद्योगिक माल का मुख्य खरीददार रूस है। पूर्वी यूक्रेन में सैन्य संघर्ष को सुलझाने के सभी प्रयास क्षेत्रीय स्वायत्तता के मुद्दे पर निष्फल रहे हैं। यूक्रेन के राष्ट्रवादी डोनबास को स्वायत्तता देने के लिए हरगिज तैयार नहीं थे। इससे कम किसी समझौते के लिए क्रीमियाई राजी न थे।

यूक्रेन की सरकार और मिन्स्क (बेलारूस) दो क्षेत्रों के प्रशासन के बीच 2014 और 2015 में समझौता हुआ था। रूस, फ्रांस और जर्मनी गारंटर थे। इसके बावजूद, युद्ध की आग पर काबू नहीं पाया जा सका था। अमेरिकी प्रशासन के उकसावे पर यूक्रेन के शासकों ने मिन्स्क समझौतों से इनकार कर दिया। वे डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों में चुनाव कराने के लिए भी सहमत नहीं हुए। यहां तक कि यूरोपीय शक्तियां-जर्मनी और फ्रांस- भी यूक्रेन की सरकार को नहीं मना सकी। मौजूदा संघर्ष बहुत हद तक इन्ही क्षेत्रों से संबंधित है। यूक्रेन सरकार द्वारा इन क्षेत्रों के खिलाफसैन्य हमले की तैयारी है। जाहिर है, रूस इसके विरोध में है और अगर सैन्य आक्रमण होता है तो वह हस्तक्षेप करने के लिए तैयार बैठा है। इस प्रकार रूसी आक्रमण खतरा सही है और इसे गलत भी कहा जा सकता है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे देखते हैं। यूक्रेन पर आक्रमण करने रूस का इरादा नहीं है, लेकिन वह डोनबास क्षेत्र पर यूक्रेन को हमला करने भी न देगा। यह मंजर वैसा ही है जैसा जॉर्जिया या मोल्दोवा के उन क्षेत्रों के मामले में था जो उससे पृथक हुए थे।

यूक्रेन की जनता शांति की पक्षधर है और सुलह-समझोते से समस्याओं का समाधान चाहती है। वर्तमान राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने डोनबास में युद्ध समाप्त करने और देश के भाषा आधारित, आर्थिक और राजनीतिक विभाजन रोकने के वायदे के साथ चुनाव जीता था। फिर वे बदल गए। विरोधियों पर रूस के साथ संबंध होने का आरोप लगाने लगे। विपक्षी मीडिया के पत्र-पत्रकाओं पर रोक लगाने का सिलसिला शुरू कर दिया। लोकप्रिय विपक्षी प्लेटफॉर्म – फॉर लाइफ (OPFL) के नेता मेदवेडुचुक की गिरफ्तार करने का आदेश जारी कर दिया। इस सबके पीछे अमेरिका का दबाव था और जनता का समर्थन गवां चुके हैं।

नाटो में 14 नए सदस्यों के प्रवेश के साथ टकराव लगातार बढ़ रहा है। पूरब में नाटो का विस्तार पांच किश्तों में किया गया है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन का आरोप है कि अमेरिका ने वायदा किया था कि पूरब में नाटो का विस्तार नहीं किया जाएग लिकिन वह अबह इस वायदे से हट रहा है। पुतिन ने कहा है बुश (सीनियर) ने तत्कालीन सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव ने वादा किया था कि नाटो का विस्तार नहीं होगा। वे रूस और नाटो के बीच मई 1997 में पेरिस में हस्ताक्षरित समझौते (Founding Act) के बाद सदस्यों के नाटो में प्रवेश का विरोध कर रहे हैं। नाटो के बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन ( 2008) में नाटो के सदस्य होने के लिए जॉर्जिया और यूक्रेन को शामिल किया गया, इंटरमीडिएट रेंज की मिसाइलों की तैनाती की गई। अभी हाल ही में प्रकाशित अमेरिका के गोपनीय दस्तावेजों से जाहिर है अमेरिका की नीति सदा ही पूरब में नाटो का विस्तार करने की रही है। एक सवाल यह भी है रूस के शासकों ने यह सब क्यों होने दिया?

ताजा स्थिति यह है कि रूस ने अमेरिका और नाटो को दो प्रस्ताव भेज कर लिखित रूप से इस पर सहमति मांगी है कि किसी भी पूर्व सोवियत गणराज्य, विशेष रूप से यूक्रेन और जॉर्जिया को नाटो का सदस्य नहीं बनाया जाएगा। दूसरा प्रस्ताव अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो के सैन्य निर्माण और पूर्व वारस संधि देशों में सैन्य गतिविधियों में कमी के लिए है। पश्चिमी देश विशेष रूप से अमेरिकी प्रशासन इन पर बातचीत करने के लिए राजी हुआ है। अमेरिका और रूस के बीच, रूस और नाटो के बीच और यूरोपीय देशों के बीच वार्ता के लिए सहमति बताती है वे रूस की पेशकश से इनकार नहीं कर पा रहे हैं।

बहरहाल, प्रभुत्व वादी शक्तियों की रौब-दाब व धमकियों के अातंक का दौर अब नहीं चल पा रहा है। ओबामा ने कभी रूस को “केवल एक क्षेत्रीय शक्ति” बताया था। आज की बहु-ध्रुवीय दुनिया शायद इसे न माने। रूस के प्रस्ताव लिखित समझौतों यानी कानूनी गारंटी मांग रहे हैं। सवाल यूक्रेन के स्वतंत्रता के अधिकार तक ही सीमित नहीं बल्कि अमेरिका‌ द्वारा धमकी के बल पर दुनिया पर अपना प्रभुत्व थोपने के तौर-तरीकों से संबंधित है। जग जाहिर है अमरीकी साम्राज्यवाद अपने प्रतिद्वंद्वियों कि सीमाओं पर उच्च तकनीकी हथियारों की तैनाती और सैन्य घेराबादी से बाज नहीं आएंगे। सत्य यह भी है कि वह अमेरिकी नीत नाटो हो या रूस इनमें से किसी को भी यूक्रेन की जनता के अधिकारों से कोई लेना-देना नही है। यूक्रेनियन शांति से समस्या का समाधान चाहते हैं। यूक्रेन की भौगोलिक व रणनीतिक स्थिति, प्राकृतिक संसाधानों पर लोभी साम्राज्यवादियों की नजर है। वे शांति और जनता की खुशहाली के दुश्मन हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.