एक अप्रैल से ख़त्म हो जाएगा बोनस अधिनियमः लेबर कोड पार्ट-2

मजदूरी संहिता, 2019 अब तक लागू 4 श्रम कानूनों को संशोधित व समेकित कर बनाया गया है। ये चार कानून हैं – न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, मजदूरी संदाय अधिनियम, बोनस संदाय अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम।

44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार लेबर कोड बनाए गए हैं। एक अप्रैल से लेबर कोड लागू होने वाले हैं।

मजदूरी कोड का सबसे लचर पक्ष यह है कि यह स्पष्ट रूप में मजदूर और कर्मचारी की परिभाषा को अलग नहीं करता और गड्डमड्ड करता है जो किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में उलझाने वाला बन सकता है।

इसके तहत मुख्य या मूल नियोक्ता  को परिभाषित नहीं किया गया है और अंतिम जिम्मेदारी ठेकेदारों की ही बताई गई है।

इससे कम्पनी में काम करने वाले ऐसे मजदूरों का परमानेन्ट मजदूर या कर्मचारी होने का न तो कोई दावा बनेगा और न ही कम्पनी का वेतनमान व उसकी सुविधएं इन ठेका मजदूरों को मिलेंगे।

यह ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देनेवाला है क्योंकि ऐसा करने पर मुख्य या मूल नियोक्ता अपने दायित्वों से बच जाते हैं। विवाद की स्थिति में उन पर कोई आपराध्कि मामला भी नहीं चल पायेगा।

ठेके पर हो रहे कामों के लिए संयुक्त लाइसेंस का प्रावधन किया गया है जिसके तहत नियतकालिक या अस्थायी काम व स्थायी काम का पफर्क कर पाना मुश्किल होगा।

इससे मूल नियोक्ता यानी कम्पनी मालिक या प्रबंध्न की स्थिति सशक्त होगी जिससे वह स्थायी व आवश्यक काम भी ठेका मजदूरी पर करा पाएंगे।

प्रशिक्षुओं को कर्मचारियों या मजदूरों की हैसियत नहीं दी गई है जबकि अब तक उन्हें यह दर्जा दिया जाता था। उन्हें इस तरह मजूदरों का काम करने पर भी हर अध्किार से वंचित किया गया है।

जहां तक न्यूनतम मजदूरी का सवाल है तो इसे तय करने के लिए कोई वस्तुपरक मापदंड नहीं दिए गए हैं, कोई नीति निर्देशक सिद्धांत नहीं रखा गया है और इन्हें केन्द्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तय किए जाने की बात है। फिर उसके ऊपर से राज्यों को अधिकार रहेगा कि वे अपने यहां कीे न्यूनतम मजदूरी तय करें।

ऐसे में विभिन्न राज्य अपने यहां पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए न्यूनतम मजदूरी कम से कम रखने का प्रयास करेंगे और उन पर कोई बाध्यता नहीं होगी।

श्रमिक संघ चाहते थे कि हर साल न्यूनतम मजदूरी दरों को तय किया जाए लेकिन यह कानून 5 साल के लम्बे अंतराल की बाध्यता की ही बात करता है। कानून का कहना है कि 5 साल से ज्यादा लम्बी अवधि इनका संशोधन न किया जाए।
जहां तक काम के घंटों की बात है तो इसके तहत कहा गया है कि राज्य सरकारें इसे तय करेंगी। ऐसा माना जा रहा है कि ओवरटाइम की बात को कानून में ऐसे रखा गया है कि इसके लिए मजदूरों को मजबूर किया जा सकता है।

वैसे तो उनसे अनुमति लेने की बात है लेकिन नये कानून के तहत ‘आपात स्थिति में’, ‘तैयारी के लिए या पूर्णरूप देने के लिए’’ मजदूरों से ज्यादा घंटे काम लिया जा सकेगा।

वैसे यह प्रावधन है कि मजदूरों-कर्मचारियों से सप्ताह में 6 दिन से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है ;ट्रांसपोर्ट मजदूरों के लिए अपवाद है।

वर्ष में हर 20 दिन के कार्य पर एक दिन की छुट्टी का प्रावधन है मातृत्व अवकाश और लेऑफ अवधि को कार्यकाल के रूप में देखा जाएगा।

प्रबंधन या मालिक को अधिकार दिया गया है कि वह देय अग्रिम राशि को वेतन में से काट ले।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रावधन के चलते मालिक उन्हें जबरन काम करवाने के लिए बाध्य कर सकते हैं।

खासकर प्रवासी मजदूरों की जो दुःस्थिति रहती है उसके तहत वे अग्रिम राशि लेकर गुजर-बसर करने को मजबूर होते हैं। इसकी भरपाई के नाम पर उनसे बंधुआ मजदूरों जैसा काम लिया जा सकता है।

मजदूरी का भुगतान नहीं करने की स्थिति में मालिकों पर कोई फौजदारी मामला नहीं चलेगा और उनके ऊपर लगने वाले जुर्माना की रकम भी कम की गई है। मजदूर यदि एक दिन गैर हाजिर होता है तो इस नाम पर मालिक 8 दिनों का वेतन काट सकता है।

मजदूरी संहिता के बारे में कहा जा रहा है कि पहली बार इसने पूरे देश के मजदूरों को एक निम्नतम मजदूरी  का तोहफा दिया है।

लेकिन सरकार ने हमारे लिए कोई संदेह न छोड़ा कि उसका मकसद यह नहीं है कि मजदूरों को एक मानवोचित मजदूरी मिले।

उसने 2 रु बढ़ाकर न्यूनतम मजदूरी को जब 178 रु॰ प्रतिदिन किया है तो इससे यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार मजदूरों के लिए गरीबी रेखा के आस-पास की ही न्यूनतम मजदूरी को सही मानती है।

खुद श्रम मंत्रालय के विशेषज्ञों की कमिटी ने 375 रु॰ से लेकर 447 रु॰ प्रतिदिन की मजदूरी की सिफारिश की थी लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना।

15वें भारतीय श्रम सम्मेलन ;प्दकपंद स्ंइवनत ब्वदमितमदबमद्ध ने तो 692 रु॰ प्रतिदिन या 18000 रु॰ प्रति माह की दर से न्यूनतम मजदूरी की सिफारिश की थी। सोचिए, कितना फर्क है।

(क्रमशः)

(बिहार से निकलने वाली मज़दूर पत्रिका से साभार)

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