एक रसूख़दार की मौत

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किसी भी रसूख़दार
व्यक्ति की मौत
बन जाती है
अख़बारों की सुर्ख़ियाँ
भावुक हो उठते हैं
टीवी ऐंकर
गमगीन हो उठता है
पूरा समाज

फ़र्क़ नहीं पड़ता है
उसके कारनामों से
धुल जाते हैं
उसके सारे पाप
सारे अपराध
कथित सभ्य समाज
लेंस लेकर ढूँढने लगता है
उसके किए भले कामों की चिंदियाँ
ना मिलें तो गढ़ दिये जाते हैं
कुछ दरियादिली के क़िस्से
और कुछ बेमेल खूबियाँ
फिर भी बात न बने तो
संवेदनाएँ उमड़ने लगती हैं
उसके परिवार के लिये।
बेचारा!
उसको इतनी जल्दी
नहीं जाना चाहिये था।
कैसे जियेंगे उसके बच्चे
उस बूढ़ी माँ पर
क्या बीत रही होगी!

अब जरा एक और
दुनिया पर गौर करें!
क्या होता है जब
असमय मौत के मुँह में
जाते हैं ग़रीब-मेहनतकश
कारख़ानों में
जान गँवाते हैं मज़दूर
गंदे नालों में
समा जाते हैं सफ़ाईकर्मी
तपती धूप में
लू के शिकार होते हैं किसान
तिल तिल कर जान गँवाते हैं
कुपोषित ग़रीब बच्चे
क्या इनको भी मिलता है
सम्मान?
बहते हैं इनके लिये भी आँसू
इस कथित सभ्य समाज के?
ये सब ‘अभागे’
क्यों रह जाते हैं समाज की
संवेदनाओं से महरूम?
क्या ये इंसान नहीं हैं?
क्या इनके बच्चे-परिवार नहीं हैं?
आख़िर क्यों है इनकी ज़िंदगी
इतनी सस्ती?

मौत पर संवेदनशील होना
इंसानी फ़ितरत है
एक स्वाभाविक गुण है
पर अगर संवेदनाएँ भी
स्टैटस देखकर
पैदा होने लगें
तब ये संवेदनाएँ नहीं
बल्कि एक मानसिक ग़ुलामी
की निशानी हैं।

यह निशानी है
अमीर को श्रेष्ठ
मानने की
विशेषाधिकार
देने की
ग़रीब को
उपेक्षित
भाव से देखने की
दो पावों पर चलने वाले
एक जानवर से अधिक
कुछ भी न मानने की

अफ़सोस कि
यह मानसिकता भी
कोई नयी नहीं है
सदियों से ढो रहा है
इसे हमारा समाज
कभी कौड़ियों के भाव
बिकने वाले दास
तरसते रहे
इंसान का दर्जा पाने के लिये
सदियों से दलित तबका
पीता रहा इसी अपमान
का घूँट
उनका मरना जैसे
उनको मोक्ष मिलना था
अंग्रेज़ों से हम भारतीय भी
माँगते रहे इज्जत की भीख
फिर भी उन्होंने हमें
ग़ुलाम बनाया
दुत्कारा
अपने ही देश में
अपमानित किया

पर आज के
कथित सभ्य समाज में भी
स्थिति ख़ास बदली नहीं
अभी भी दो देश बसते हैं
इस एक भारत देश में
इंडिया वाले हक़दार हैं
सारे सुख सुविधाओं के
मरने के बाद सम्मान के
हिंदुस्तान वाले तो बस
जी लें तो अपने नसीब से
मरें तो उनकी बला से

संविधान में लिखी हुई
समानता-स्वतंत्रता
की लुभावनी बातें
बेमानी हो जाती हैं
असल ज़िंदगी में
उतरते ही

सच तो यह है कि
नहीं हो सकता है
मेहनतकशों के जीवन
का कोई मोल
जब तक समाज
खड़ा नहीं हो जाता
असल बराबरी के
ज़मीन पर

ऐसा समाज
और कोई नहीं
हम अपमानित
उपेक्षित
मेहनतकश ही
बना सकते हैं
हम समाज को
बदल सकते हैं।
बेहतरीन बना सकते हैं

उसके लिये हमें
मुट्ठी तानकर
नारे बुलंद करने होंगे
थामने होंगे एक दूजे के हाथ
लिखना होगा परचम पर
हम भी इंसान हैं
बराबरी व सम्मान के
पूरे हक़दार हैं।

-धर्मेंद्र आज़ाद

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