वन संरक्षण नियम 2022 कर देगा देश के जंगल भी कॉर्पोरेट के हवाले!

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By मुनीष कुमार

हरे-भरे जंगलों को काटकर प्रोजेक्ट लगाने व खनन करने की छूट। खनन के लिए जमीन के बदले जमीन देने की भी जरुरत नहीं होगी पूंजीपतियों को।

देश के जंगलों को भी देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंप देने के लिए मोदी सरकार ने विगत 28 जून को एक और कानून पारित किया है जिसका नाम है वन संरक्षण नियम 2022।

इस कानून के आ जाने के बाद कोई भी कम्पनी/प्रयोक्ता (वन भूमि को अनारक्षण, डायवर्जन या पट्टे के लिए आवेदन करने वाला व्यक्ति, संगठन या कानूनी ईकाई या कम्पनी) देश में कहीं भी मनचाही वन भूमि पर कोई प्रोजैक्ट लगाने या खनन करने के लिए आवेदन कर सकता है। इस वन भूमि की लूट को आसान बनाने के लिए ही मोदी सरकार वन संरक्षण नियम 2022 लेकर आयी है। इस वन संरक्षण नियम को वन विनाश नियम 2022 कहना ज्यादा सही होगा।

देश के वन अधिनियम 1980 में इस बात का प्रावधान था कि वन भूमि पर किसी भी प्रकार के गैर वानिकी कार्य के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति आवश्यक होगी। अब इस नये वन संरक्षण नियम 2022 के आ जाने के बाद केन्द्र सरकार द्वारा गठित कमेटी एक निश्चित समय सीमा के भीतर वन भूमि को गैर वानिकी कार्य के लिए उपयोग करने के प्रस्ताव को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिए बाध्य होगी।

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नये वन संरक्षण नियम 2022 में कहा गया है कि वन भूमि का क्षेत्रफल यदि 5 से 40 हैक्टेअर का है तो उस प्रस्ताव की जांच का कार्य 60 दिन के भीतर पूरा कर लिया जाएगा। और यदि इस भूमि पर कोई खनन का कार्य किया जाना है तो इसके लिए 75 दिन की समय सीमा निर्धारित की गयी है। 40 से 100 हैक्टेअर की भूमि के लिए 75 दिन अैर उस पर खनन के लिए 90 दिन, 100 हैक्टेअर से अधिक भूमि का प्रस्ताव होने पर 120 दिन की अधिकतम सीमा निर्धारित की गयी है और उस पर खनन करने की अनुमति के लिए 150 दिन की अवधि निर्धारित की गयी है। इस अवधि में वन भूमि को गैर वानिकी कार्य के लिए हस्तांतरण किए जाने हेतु जांच का कार्य पूरा कर लिया जाएगा। वन भूमि की मात्रा यदि 5 हैक्टेअर से कम है तो इसके लिए मात्र 30से 45 दिन की अवधि निर्धारित की गयी है। (देखें बाॅक्स)

वनाधिकार कानून 2006 के तहत देश के लाखों वनवासियों ने वन भूमि पर अपने अधिकार प्राप्त करने सम्बंधी लाखों दावे देश के समाज कल्याण विभाग के समक्ष पेश किए हुए हैं। इन दावों की हालत ये है कि अधिकांश जगहों पर इन्हें या तो सुना ही नहीं गया है या बगैर कानूनी प्रक्रिया पूर्ण किए ही इन्हें अस्वीकार कर दिया गया है।

वनवासी समाज के इन दावों की सुनवाई के लिए कोई भी समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है। वनवासियों को वन भूमि पर मालिकाना हक दिये जाने से देश के पर्यावरण व वनों को कोई भी नुकसान नहीं हैं। परंतु वहीं दूसरी ओर कोरपोरेट और बहुराष्ट्रीय निगम जिनके बारे में तय है कि वे वनों को काटकर उनमें प्रोजेक्ट लगाकर, उसमें खनन कर पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाएंगे, उन्हें सरकार चन्द दिनों में ही जंगलों को सौंप देने के लिए अमादा हो गयी है।

वन भूमि को गैर वानिकी कार्य के इस्तेमाल की अनुमति दिये जाने को लेकर तीन कमेटियों के गठन का प्रावधान इस नये कानूून में किया गया है। जिसके तहत केन्द्र सरकार एक परामर्श दात्री कमेटी का गठन करेगी। इस कमेटी में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के वन महानिदेशक अध्यक्ष, अपर महानिदेशक (वन संरक्षण) व अपर महानिदेशक (वन्य जीव) व कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अपर आयुक्त (मृदा संरक्षण) इसके सदस्य होंगे।

इस कमेटी में 3 सदस्यों को भारत सरकार नामित करेगी जोकि इंजीनियरिंग, इकोलोजी व डेवलपमेंट इकनोमिक्स क्षेत्रों के विशेषज्ञ होगे। इनका कार्यकाल दो वर्ष का होगा। इन्हें वही भत्ते दिये जांएगे जो समूह क के पद धारकों को दिये जाते हैं। वन संरक्षण के सम्बन्ध में कार्यवाही कर रहे वन महानिरीक्षक इस कमेटी के सदस्य-सचिव होंगे। इस कमेटी का निर्णय ही वन भूमि को गैर वानिकी प्रयोग हेतु दिये जाने का अंतिम निर्णय होगा।

इसके बाद एक दूसरी कमेटी ‘क्षेत्रीय सशक्त समिति’ के गठन का प्रावधान किया गया है इस समिति को वन भूमि को गैर वानिकी प्रयोग हेतु प्राप्त प्रस्ताव की जांच कर उनका अनुमोदन करने व उन्हें अस्वीकार करने का अधिकार दिया गया है। ये समिति वन भूमि पर सड़क बनाने, पाईप लाईन, रेलवे लाईन व ट्रांसमिशन लाईन बिछाने, वन भूमि को गैर वानिकी प्रयोग के लिए प्राप्त प्रस्तावों की जांच करने के साथ इस बात की जांच भी करेगी कि प्रस्तावित भूमि का इस्तेमाल खेती करने, आवास, आफिस बनाने व अपने आवासों से विस्थापित हुए लोगों बसाने के लिए तो नहीं किया जा रहा है।

इससे स्पष्ट है कि खेती, आवास आफिस बनाने व विस्थापित लोगों के र्पुनवास को छोड़कर अन्य सभी तरह के कार्यो के लिए वन भूमि को हस्तांतरित किया जा सकेगा। भू स्खलन, भूकंप, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के कारण विस्थापित देशवासियों को सरकार वन भूमि की एक इंच जगह भी नहीं देगी।

इस क्षेत्रीय सशक्त समिति का अध्यक्ष क्षेत्रीय अधिकारी होगा। वन संरक्षक या उप वन संरक्षक रेंक का अधिकारी इसका सचिव होगा। इस कमेटी के तीन सदस्य केन्द्र सरकार नामित करेगी जोकि वानिकी या उससे सम्बन्धित विषयों के विशेषज्ञ होगे। इन नामित सदस्यों का कार्यकाल 3 वर्ष का होगा व उन्हें भी समूह क के पद धारक के समान ही यात्रा व दैनिक भत्ते दिये जाएंगे।

राज्य सरकार या संघ राज्य क्षेत्र जिसमें परियोजना लगाने का प्रस्ताव आया है वे राज्य वन भूमि को गैर वानिकी कार्यों के प्रयोग में लेने हेतू प्राप्त प्रस्ताव की जांच के लिए परियोजना जांच समिति का गठन कर सकती है। इस 5 सदस्यी जांच समिति का अध्यक्ष नोडल अधिकारी होगा जो कि राज्य के प्रमुख वन संरक्षक के नीचे के पद का नहीं होगा। नोडल अधिकारी के कार्यालय का प्रभागीय वनाधिकारी इसका सचिव होगा। मुख्य वन संक्षरक/वन संरक्षक, संबधित प्रभागीय वनाधिकारी व संबधित जिला कलैक्टर और उनके प्रतिनिधि जो कि डिप्टी कलैक्टर के पद से नीचे के नहीं होगें, इस समिति के सदस्य होगे। ये समिति परियोजना को लेकर राज्य सरकार या संघ राज्य क्षेत्र को अपनी सिफारिशें दे सकती है।

दिलचस्प बात ये है कि इन तीनों ही स्तर की कमेटियों में वन पंचायतों, वनाधिकार कानून 2006 के अंतर्गत गठित ग्राम स्तरीय कमेटी व ग्राम सभा को कहीं भी कोई जगह व अधिकार नहीं दिये गये हैं और इनकी भूमिका को बिल्कुल खत्म कर दिया गया है। सभी निर्णय लेने की ताकत नौकरशाहों व सरकार द्वारा नामित विशेषज्ञों को दे दी गयी है।

वन भूमि को गैर वानिकी प्रयोग हेतु आवेदन करने वाला प्रयोक्ता को भूमि प्राप्त करने के लिए बदले में वन महकमें को ऐसी भूमी उपलब्ध करानी होगी जोकि वन कानूनों के अंतर्गत वन के रुप में अधिसूचित न हो और न ही वन विभाग द्वारा वन के रुप में प्रतिबंधित भूमि हो। भूमि के बदले वन महकमें को दी गयी भूमि पर वन लगाने के लिए लगने वाली लागत का मूल्य भी प्रयोक्ता वहन करेगा। पेट्रोलियम अन्वेषण लाइसेंस या पेट्रोलियम खनन पट्टों के मामले में भूमि के बदले भूमि देने व अनुमोदन की बाध्यता से छूट दी गयी है।

इस वन संरक्षण नियम में कहा गया है कि जिन राज्यों या संघ राज्य क्षेत्र में दो तिहाई या एक तिहाई से अधिक भूमि पर वन हैं और वहां पर भूमि के बदले दिये जाने हेतु भूमि उपलब्ध नही है। तो ऐसी स्थिति में जरुरी नही हैं कि प्रयोक्ता भूमि उसी राज्य में उपलब्ध कराए। प्रयोक्ता इस भूमि को उन राज्यों में भी उपलब्ध करा सकता है जिन राज्यों की भूमि 20 प्रतिशत से भी कम वनाच्छादित है।

देश के सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्तियों को बेचने के लिए भारत सरकार ने निवेश और लोक सम्पत्ति प्रबंधन विभाग का गठन किया हुया है जिसका काम देश की सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति को निजी पूंजीपतियों को बेचे जाने का इंतजाम करना है। अब इसी तर्ज पर मोदी सरकार वन संरक्षण नियम 2022 लेकर आयी है जिसका लक्ष्य देश के जंगलों को पूंजीपतियों के हवाले करना है।

देश की जमीनें, सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्तियों, बैंक बीमा आदि को लूटने के बाद कोरपोरेट व बहुराष्ट्रीय निगमों की गिद्ध दृष्टि अब जंगलों पर लग गयी है। वे अब जंगलों को भी अपनी निजी मिल्कियत बनाना चाहते हैं, उनसे और अधिक मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं।

देश का लगभग 22 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित है। किसी भी वन के विकसित होने में सैकड़ोंझारों वर्ष का समय लगता है। देश के वनों में केवल वृक्ष ही नहीं हैं बल्कि इनमें विभिन्न किस्मों की वनस्पिति व जीव जन्तु भी पाए जाते हैं। मोदी सरकार द्वारा लाए गये इन नये नियमों से देश के पर्यावरण,जंगलों, वनस्पतियों व जीव-जंतुओं की तबाही-बरबादी तय है।

बने बनाए वनों के बदले वन विभाग को प्राप्त भूमि पर वृक्षारोपड़ करने की नीति देश के पर्यावरण के लिए बेहद घातक सिद्ध होगी। आज भी देश की लगभग 20 करोड़ की आबादी अपनी जीविका के लिए वनों पर निर्भर है। वन संरक्षण नियम 2022 उनके अधिकारों पर भी कुठाराघात है।

देश की जनता को इस वन संरक्षण (विनाश) नियम 2022 को किसी भी शर्त पर स्वीकार नहीं करना चाहिए। जनता ने सरकार को इसलिए नहीं चुना है कि वह देश व उसके पर्यावरण को बरबाद कर दे।

(लेखक समाजवादी लोक मंच के संयोजक हैं)

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