लॉकडाउन में लौटते मज़दूरों की छिनी 5400 साइकिलें बेच योगी सरकार ने कितने कमाए?

workers on cycle

By प्रियदर्शन

जिस दिन प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश में 80,000 करोड़ की योजनाओं की नींव रख रहे थे और यह विश्वास जता रहे थे कि यूपी एक ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला राज्य बनने की क्षमता रखता है, उसी दिन यह ख़बर आ रही थी कि यूपी सरकार ने गरीबों की साइकिल बेच कर 21 लाख रुपये कमा लिए हैं।

कौन हैं ये गरीब और कहां से इनकी साइकिलें सरकार के पास बिक्री के लिए जमा होती गईं? इस सवाल का जवाब दिल दुखाता है।

ये वे लोग हैं जो दो साल पहले अपने प्रधानमंत्री द्वारा आधी रात को अचानक घोषित लॉकडाउन की चपेट में आ गए।

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रातों-रात उन्होंने पाया कि वे कारख़ाने बंद हो चुके हैं जहां वे दिन में काम करते थे और रात को सो जाते थे। वे दुकानें नहीं खुल रहीं जहां से उनकी दिहाड़ी संभव होती थी, जिस नगरों-महानगरों की रफ्तार बनाए रखने में उनका पसीना ईंधन का काम करता था, वे अब उनके लिए नहीं रह गए हैं।

इस अकेले मजबूर समय में उन्होंने अपने पांवों पर भरोसा किया। माथे पर असबाब लादा, पीठ पर बच्चों को बिठाया और सैकड़ों मील के सफ़र के लिए उन गांवों की ओर चल पड़े जहां उनका बहुत कुछ बचा नहीं था। कुछ ने अपना सामान बेच कर अपने लिए साइकिल खरीदी और चल दिए।

21 लाख के यूपी सरकार के कारोबार की कहानी यहीं से शुरू होती है। इन चलते हुए लोगों की, साइकिल चलाते मजबूरों की कहानियां मीडिया में आने लगीं। लॉकडाउन का एक डरावना-क्रूर चेहरा खुलने लगा।

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Bicycles auctioned in Saharanpur Uttar Pradesh
सहारनपुर में जब्त साइकिलों का अम्बार जिन्हें बेचने के लिए नीमाल कर दिया गया।

5400 साइकिलें

यहां सरकार सक्रिय हो गई। जहां-तहां लोग रोके गए, उन्हें क्वॉरन्टीन कर दिया गया। जिनके पास साइकिलें थीं, उनसे साइकिलें छीन ली गईं। उन्हें क्वॉरंटीन कर दिया गया और बाद में घर लौटने की इजाज़त दी गई।

उन्हें साइकिलों के लिए टोकन दिया गया और कहा गया कि बाद में आकर अपनी साइकिल ले लें।

एनडीटीवी में हमारे सहयोगी रवीश रंजन शुक्ला ने आज रिपोर्ट की है कि ऐसी पांच हज़ार से ज़्यादा साइकिलें सहारनपुर में धूल और ज़ंग खाती रहीं। कोई इन्हें लेने नहीं आया।

जिन गरीबों का कोई ठिकाना नहीं था, वे सैकड़ों मील दूर अपनी साइकिलें लेने कहां आते? तो सरकार ने इन्हें एक ठेकेदार को 21 लाख में बेच दिया। ठेकेदार 1200 रुपये प्रति साइकिल बेचने की कोशिश कर रहा है।

हालांकि उसकी शिकायत है कि साइकिलें खराब हो चुकी हैं और उसे 5400 बता कर 4000 साइकिलें थमाई गई हैं।

बहरहाल, सरकार क्या करती? साइकिलें पड़ी-पड़ी सड़ जातीं तो इससे अच्छा हुआ कि बिक गईं। वैसे भी हाल के दिनों में सरकारों को सार्वजनिक सामान नीलाम करने की कला खूब आ गई है।

मगर क्या सरकार किसी और ढंग से सोच सकती थी? क्या वह सुनिश्चित कर सकती थी कि जिस मजदूर की साइकिल उसने छीन ली है, वह उसे लौटा दी जाए? उसने कायदे से किसी मज़दूर का पता तक नहीं रखा होगा।

विराट तंत्र में कुचलते मजदूर

मजदूर इतने मामूली लोग होते हैं कि उन्हें कहीं से भी उजाड़ा जा सकता है, कहीं भी फेंका जा सकता है और ज़रूरत पड़ने पर फिर काम पर बुलाया जा सकता है।

उनके नाम नहीं चेहरे होते हैं, उनके छलनी कंधे होते हैं, उनकी झुकी हुई पीठ होती है, उनके सख्त बाजू होते हैं। वे बस मजदूरी कर सकते हैं।

मज़दूर इन वर्षों में इस देश में कुछ और लाचार होता गया है। सरकार उसकी परवाह क्यों करती?

उसके कारिंदे क्यों सोचते कि इन मज़दूरों को उनकी साइकिल मिल जाए। उनके लिए यह खर्चीला काम रहा होगा। उनको लगा होगा कि जितने की साइकिल नहीं है, उससे तो ज़्यादा उसे पहुंचाने का ख़र्च होगा। यह खर्च कौन उठाएगा।

यह इंतज़ाम कौन करेगा कि अलग-अलग शहरों तक ये साइकिलें पहुंचें? इसका बजट कहां से आता?

नर्मदा आंदोलन पर लिखी अरुंधती राय की किताब ‘द ग्रेटर कॉमन गुड’ का एक बिंब अक्सर याद आता है। वे लिखती हैं कि सरकारी तंत्र इतना विराट होता है कि वह जिन लोगों की भलाई के लिए निकलता है, अक्सर उन्हें कुचल डालता है।

वह जैसे नेलकटर की जगह हेजकटर इस्तेमाल करता है और लोगों के नाखून की जगह पूरी उंगली काट डालता है। इन मज़दूरों के साथ बिल्कुल यही हुआ।

Bycycle in lockdown photo journalist @Arun Sharma
ये तस्वीर पीटीआई के फोटो पत्रकार अरुण शर्मा ने पहले लॉकडाउन में साइकिल से अपने बीमार बच्चे को ले जाते एक प्रवासी मज़दूर का ये फोटो लिया था। (साभार प्रकाशित)
खोखली सरकार संवेदना

कोरोना से लड़ने और लॉकडाउन को मैनेज करने में लगी सरकार विदेशों में विमान भेज-भेज कर आप्रवासी भारतीयों को बुलवाती रही और अपनी पीठ ठोकती रही कि उसे भारतीयों की कितनी चिंता है, लेकिन दिल्ली-मुंबई-चेन्नई और बेंगलुरु से लौट रहे मज़दूरों की साइकिलें छीन कर रख ली गईं।

सरकारों को डर था कि ये गंदे लाचार लोग बिना जांच के कहीं भी जाएंगे, कोरोना फैलाएंगे। बेशक, बाद में यह डर सही साबित नहीं हुआ, उल्टे यह दिखा कि विदेश से लौटे लोग अपने साथ हिंदुस्तान में कोरोना लेकर आए।

बहरहाल यह लेख उन खाते-पीते लोगों के ख़िलाफ़ नहीं लिखा जा रहा है, उन ग़रीबों के लिए लिखा जा रहा है जिनकी फ़िक्र इस देश में जैसे किसी को नहीं रह गई है।

यहां फिर अरुंधती रॉय का एक जुमला याद आता है। हमें इन लोगों की चिंता क्यों नहीं सताती? क्योंकि हमारे भीतर जैसे एक तरह के ‘नस्ली परायेपन’ का भाव सक्रिय रहता है।

शारीरिक श्रम के तमाम रूपों को उपेक्षा और वितृष्णा के साथ देखने वाला हमारा समाज जैसे मान कर चलता है कि ये दूसरे लोग हैं। हमारे घरों के लोग ऐसे शारीरिक श्रम नहीं करते।

अगर ऐसे श्रम के प्रति हमारे भीतर थोडी सी संवेदना होती, अगर इन मज़दूरों से थोड़ा भी लगाव होता तो शायद हम इनकी साइकिलों का खयाल रखते। इन मजदूरों का पता रखते।

यह उम्मीद रखते कि एक दिन ये लौटेंगे और अपनी साइकिलें लेकर अपने ठिकानों पर रवाना होंगे।

21 लाख से यूपी की जीडीपी कितनी बढ़ेगी?

यह यूटोपिया भी होता तो एक बेहतर यूटोपिया होता। यह यूपी को एक ट्रिलियन की जीडीपी वाला राज्य बनाने की कोशिश से कहीं ज़्यादा मानवीय कोशिश होती।

क्योंकि हमें पता है कि यूपी के संसाधनों को निचोड़ कर जो एक ट्रिलियन की रक़म पैदा होगी, वह किनके खातों में जाएगी। आज भी ऐसे कई चेहरे प्रधानमंत्री के चारों ओर मौजूद थे।

यह अनायास नहीं है कि कोरोना के बाद के तमाम आर्थिक सर्वेक्षण बता रहे हैं कि इस देश में अमीर बुरी तरह अमीर होते चले गए हैं और ग़रीब बुरी तरह ग़रीब। बीते दो साल में अपने आसपास की दुकानों के बाहर देख लीजिए- ऐसे बहुत सारे बच्चों को भीख मांगने का अभ्यास हो चुका है जिन्हें कायदे से स्कूलों में होना चाहिए था।

लेकिन इनकी चिंता कौन करेगा? अभी ज़्यादा से ज़्यादा हवाई अड्डे बनाने की तैयारी है। ज़्यादा से ज़्यादा चमचमाते रेलवे स्टेशन बनाने का सपना है। ऐसे विराट हाइवे बनाने का खयाल है जिस पर साइकिल चल ही न सके, बल्कि वहां साइकिल चलाने पर रोक हो।

ऐसे में धूल खा रही 5400 साइकिलों की क्या औकात और उनके मालिकों की क्या हैसियत। उन्हें इस विराट जनतंत्र के चक्के तले बस कुचल जाना है। उनकी नीलामी से हासिल 21 लाख से फिर भी यूपी की जीडीपी कुछ बढ़ जाएगी।

(लेखक एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह टिप्पणी एनडीटीवी से साभार प्रकाशित है।)

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