क्या मोदी और शाह की जोड़़ी ने भारत में तख़्तापलट कर दिया है? -फासीवादी हमला-2

modi shah nadda

By शेखर

अब तो लगता है नरेन्द्र मोदी को, व्यक्तिगत तौर से, ‘अपने’ लोगों की भी परवाह नहीं रह गई है, कोरोना महामारी जनित समस्याओं से जूझते आम लोगों की सुध लेना तो दूर की बात है। ठीक ठीक कहें तो, एक सच्चे प्रतिक्रियावादी की तरह, उसे अब अपने समर्थकों के बीच भी लोकप्रियता खोने का डर नहीं सता रहा।

उसने अपने सच्चे और सबसे विश्वस्नीय भक्तों, मध्यम व उच्च मध्यम वर्ग की भी चिंता करनी छोड़ दी है। अब तो निम्न मध्यम या निम्न पूंजीवादी तबके को संबोधित करना तक उसके एजेंडा से बाहर हो चुका है, तो ऐसे में उन मजदूरों और गरीब किसानों की क्या बात की जाए जो शुरुआत से ही उसके निशाने पर हैं।

हम पाते हैं कि मोदी के समर्थकों को भी इस महामारी के दौर में संक्रमण या अन्य गंभीर बीमारियों के लिए प्रयाप्त इलाज नहीं मिल पा रहा है और कई लोग अस्पतालों में बेड और डॉक्टरों की कमी से मारे जा रहे हैं।

अब वो भी बिना स्वास्थ्य सेवाओं के पूरी तरह आत्मनिर्भर आम जनता हो गये हैं।  यहां तक कि खुद भाजपा के निचले या मध्यम स्तर के नेता भी इस तरह की उपेक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं, जिसे मानो केवल इनकी मंडली के मुट्ठीभर लोगों और इनके आकाओं अर्थात बड़े पूंजीपति या उच्च स्तर के अपरिहार्य नेतागण के लिए ही रिजर्व कर दी गई हो, की कमी के शिकार हो रहे हैं। और बाकी सभीआत्मनिर्भर जनता बनने को मजबूर हैं।

अगर हम कुछ देर के लिए बाकी चीजें भूल भी जाएं तो भी ये सारे तथ्य अपने आप में इस बात की पुष्टि करते हैं कि मोदी सरकार की फासीवादी तानाशाही की जीत अब काफी नजदीक आ चुकी है और सार रूप में देखें तो बखूबी स्थापित भी हो चुकी है। इसीलिए उसे अब ‘अपने ही’ समर्थकों के गुस्से से भी फर्क नहीं पड़ने वाला।

लोकतंत्र रौंदा जा चुका है

यह ये भी दर्शाता है कि आने वाले 2024 लोकसभा चुनाव में, अगर कराए गए तो, हारने का या कम वोट मिलने का खौफ भी इनके मन से खत्म हो चुका है। इसका क्या मतलब है?

यह एक लक्षण है, इनके हाव-भाव बिलकुल एक फासीवादी तानाशाह की तरह है जिससे यह साफ़ पता चलता है कि मोदी-शाह की फासीवादी सत्ता सार रूप में स्थापित हो चुकी है, इसके खूनी पंजे गहराई तक धंस चुके हैं और ‘जनतंत्र’ इनके पैरों तले रौंदा जा चुका है जिसका आवरण या परदा बस एक पतली से डोर से लटका है जिसे कभी भी नोच कर फेंका जा सकता है।

शुरुआत में मोदी सरकार अपने समर्थकों की इज्जत करती थी या करने की जरुरत समझती थी। उसे कम से कम अपने युवा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए, दिखावे के लिए ही सही, कुछ करने और उनका ख्याल रखने की जरुरत थी।

लेकिन अब उसे अपने पुराने मुद्दों और शैली से उन्हें रिझाने की जरुरत नहीं महसूस होती है। धीरे धीरे वह इन बाध्यताओं से बाहर आ चुकी है।

ऐसा लगता है कि भविष्य के लिए अब वे मनमर्जी के लिये राज्य मशीनरी पर ही निर्भर रहना चाहते हैं, जैसे कि न्याय व्यवस्था जो अब पूरी तरह इनके काबू में है और केवल एक मूक दर्शक बन कर रह गई है।

हम भारत में मोदी की फासीवादी सत्ता के विकास की मौजूदा दिशा और उसका आगे का रास्ता साफ देख सकते हैं। इससे हमें उन फासीवादियों की चालाकी का पता चलता है जो पिछले 6 सालों में बहुत करीने से बखूबी इस बुर्जुआ जनतंत्र को, अन्दर ही अन्दर, एक फासीवादी राज्य में तब्दील करने में सफल रहे हैं।

सरकारी मशीनरी पर पूरी तरह कब्ज़ा

अतीत में इनके द्वारा ली गई दिशा और इनके कदमों को चिन्हित किया जा सकता है। सबसे पहले एक व्यापक जनाधार और अपने धूर्त सांप्रदायिक अंधराष्ट्रवादी प्रचार को अपने जुमलों और झूठे वादों से जोड़ कर साथ ही साथ अपनी महामानव और देशवासियों (खासकर हिन्दुओं) की रक्षा हेतु जन्मे एक अवतार की छवि के बदौलत उसने अपने आप को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा लिया।

यह कार्य संपन्न होते ही उसने राज्य मशीनरी (न्याय व्यवस्था भी) के अधिकारियों को साम-दाम-दंड-भेद की नीति लगा कर अपने कब्जे में कर लिया और अपने जन विरोधी मंसूबों को अंजाम देना शुरू दिया।

अंततः सभी संस्थाओं को पहले फंसाया गया और फिर पूरी तरह उस पर कब्जा कर लिया गया, और अब 2019 में पहले से भी ज्यादा बड़ी जीत हासिल करने के बाद, राज्य मशीनरी की मदद से, वो सभी से लड़ने को तैयार हैं, चाहे वो सड़कों पर आ कर सरकार का विरोध करते उसके पूर्व समर्थक ही क्यों ना हों।

आरएसएस और उसके अन्य संगठनों से उसे अब ऐसे समर्थकों (गुंडों) की एक बड़ी तादात मिल चुकी है जो पैसे के लिए इनके जन विरोधी कुकृत्यों को जमीन पर अंजाम देती है और मुख्यतः इस फासीवादी सरकार की निजी सेना की तरह काम करती है, जो कि आज कल सोशल मीडिया से ले कर समाज के हर कोने में विराजमान हैं।

जाहिर है कि अब मोदी सरकार अपने अंतिम जीत की तैयारी कर रही है। वह अपने समर्थकों के ख़िलाफ़ भी उसी तरह का नफरत और प्रतिशोध से भरा कदम उठाएगी अगर वे अपने मन में भरे गए ज़हर को दरकिनार करके मोदी और उसकी फासीवादी सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं।

संसद ख़त्म, अध्यादेशों पर चल रहा राज

इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए और भूतपूर्व ‘स्वतंत्र’ राज्य मशीनरी या भूतपूर्व ‘जनतांत्रिक संस्थानों’ पर अपनी पकड़ पूरी तरह मजबूत करने के साथ ही, सभी टीवी चैनल और अधिकतर प्रिंट मीडिया स्वाभाविक तौर से मोदी सरकार की गोद में जा बैठी है और उनके जहरीले एजेंडे को जनता तक पहुंचाने का काम बखूबी कर रही हैं।

आइये, विपक्षी बुर्जुआ खेमे पर भी एक नजर डाली जाए। अभी तक सभी सरकारों ने कोरोना से लड़ने के लिए “हर्ड इम्युनिटी” का ही सहारा लिया है, अब चाहे इससे हजारों, लाखों या संभवतः करोड़ों लोग क्यों ना मारे जाएं।

और अगर इस आपराधिक उपेक्षा को जल्द नहीं रोका गया तो इन आंकड़ों को सच होते देर नहीं लगेगी। लगभग सभी विपक्षी पार्टियां इस महत्वपूर्ण सवाल पर मोदी के साथ खड़ी हैं। “हर्ड इम्युनिटी” कायम होने की प्रक्रिया में अगर लाखों लोगों की मौत भी हो जाती है तो भी उन्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है।

दूसरी तरफ, उन सभी पार्टियों के, ऊपर से ले कर नीचे तक, पूरी तरह भ्रष्ट होने के कारण मोदी सरकार ने सीबीआई, ईडी व अन्य सरकारी एजेंसियों की मदद से उन्हें बड़ी आसानी से अपने चंगुल में कर लिया है। और यही वजह है कि मोदी सरकार द्वारा राज्यों को जीएसटी में हिस्सा नहीं देने के बाद भी वे सब चुप हैं।

यहां तक कि वे संसद के सत्र शुरू करने की मांग तक नहीं कर रहे हैं, जबकि मोदी सरकार अपने  मंत्रीमंडल के हुक्मनामे और अध्यादेशों के सहारे ही शासन कर रही है और उसे पूरे देश की जनता पर थोपे जा रही है।

अब तो ऐसा लगता है कि आगे इन अध्यादेशों की भी जरुरत नहीं पड़ेगी। मोदी-शाह गुट के लोगों के मुंह से जो निकले, वो ही कानून होगा। बस थोड़ी बहुत रुकावटों को ठिकाने लगाना बाकी है। हालांकि जमीन पर यह कवायद पहले ही लागू हो चुकी है।

ट्रेड यूनियन आंदोलन रस्मी कार्रवाईयों तक सिमटा

अब सभी के लिए, विपक्षी पार्टियां हो या आम जनता, संसद अप्रासंगिक हो गया है। सब कुछ खुलेआम घटित हो रहा है लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसका संज्ञान लेने और बुर्जुआ संविधान को बचाने की कोशिश करने के बजाय मूक दर्शक बन कर बैठा है।

आवाज उठाने वालों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों से सभी भयभीत और सहमे हुए हैं। अगर कहीं उम्मीद बची है तो केवल क्रांतिकारी ताकतों पर ही, लेकिन वे भी, मुख्यतः विभिन्न मुद्दों पर विखंडित होने के कारण जिसका आधार कभी गंभीर तो कभी तुच्छ होता है, अपने कार्यभार को पूरा करने में अक्षम साबित हुए हैं।

मजदूर वर्ग का क्रांतिकरण होने में अभी भी वक्त है। वे अभी भी रियायतों और सुविधाओं पर आधारित अवसरवादी ट्रेड यूनियनों की पुरानी समस्याओं से घिरे हुए हैं।

‘वाम’ दल अपनी आवाज उठा रहे हैं लेकिन बेहद कमजोर स्वर में। संगठित और उन्नत मजदूर वर्ग, जिसे मजदूर आन्दोलन का ढाल माना जाता है, संशोधनवादी संसदीय वाम के नेतृत्व में रह कर अपनी क्षमता खो चुके हैं और उनके पूंजीपतियों या बुर्जुआ सरकार के खिलाफ न्यूनतम विरोध की आत्म-समर्पण की नीति पर चलने को विवश हैं।

इसके लिए जिम्मेदार और कोई नहीं बल्कि बुरी तरह विखंडित क्रांतिकारी ताकतें ही हैं जिनके द्वारा मजदूर आन्दोलन में एक पर्याप्त हस्तक्षेप का बड़ा अभाव अभी भी बना हुआ है। बुर्जुआ पार्टियां या न्याय व्यवस्था अब फासिस्टों के लिए कोई चुनौती नहीं हैं।

आज का सुप्रीम कोर्ट केंद्र के मौजूदा फासीवादी तंत्र के मर्जी के अनुसार ही चलने को विवश है। अतः अब मोदी सरकार अपने हिन्दू राष्ट्र, फासीवाद का भारतीय रूपांतरण, के चिर स्वप्न को पूरा करने के बेहद करीब पहुंच चुकी है।

अब अपने ही लोगों द्वारा, मोदी-शाह ने 42वे संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने की याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में डाल दी गई है।

मोदी की प्राथमिकताएं तय

अब लोगों को जीने या मरने, जैसी कि उनकी आर्थिक स्थिति हो, छोड़ कर मोदी सरकार अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन में जुट गई है ताकि लोगों के धार्मिक भावुक पक्ष का इस्तेमाल करके उन्हें उत्तेजित और लामबंद किया जा सके और उनके मन में साम्प्रदायिकता का जहर घोल कर उन्हें महामारी को सम्भालने में हुई लापरवाही और उससे जनित आर्थिक व स्वास्थ्य-सेवा संबंधित समस्याओं, मुख्यतः बेरोजगारी और गरीबी में हुई बेतहाशा वृद्धि व आम जनता को हुई बेहिसाब तकलीफों से ध्यान हटा सके और पूरे माहोल को अपने पक्ष में कर सके।

मोदी को पता है कि उसके समर्थकों में से कई ऐसे हैं जिनको कोरोना महामारी के दौरान नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है और ऐसे में वे करोड़ों रूपए खर्च करके राम मंदिर बनाने के फैसले का विरोध करेंगे, लेकिन फिर भी वो यह जोखिम उठाने को तैयार हैं।

वो जानते हैं उन्हें क्या करना है और उनके मनमाफिक ‘कार्यकर्ता’ कहां से मिलेंगे। मोदी की प्राथमिकताएं तय हैं और उसे फर्क नहीं पड़ता अगर उसके समर्थकों या भक्तों के एक छोटे हिस्से का उससे मोह भंग भी हो जाता है।

जब पूरी राज्य मशीनरी हाथ में हो तो ऐसी बातों का डर भला क्यों सताए। अब तो राफेल आधारित क्षद्म राष्ट्रवाद से उन्हें दुबारा रिझाया जा सकता है। टीवी चैनल अपने काम पर लग गए हैं।

इन सब के साथ ही मोदी सरकार राज्यों की निर्वाचित कांग्रेस सरकारों को गिराने में भी व्यस्त है। पिछली बार, लॉकडाउन के ठीक पहले ये खेल मध्य प्रदेश में खेला गया था, अब राजस्थान में कोशिशें चल रही हैं और महाराष्ट्र में भी आगे यही प्रकरण दोहराए जाने की पूरी उम्मीद है।

बिहार-बंगाल चुनावों का इंतज़ार

कांग्रेस और टीएमसी, यानी राहुल गांधी और ममता बनर्जी ही हैं जो अभी तक मोदी के खिलाफ बोलने की हिम्मत कर रहे हैं, बाकी सभी पार्टियों को डरा कर या खरीद कर चुप करा दिया गया है। यहां तक कि लालू प्रसाद यादव की राजद को भी गुप्त माध्यमों के जरिए हथिया लिए जाने की खबर आ रही है।

हालांकि ममता बनर्जी और राहुल गांधी अभी तक खुलेआम मोदी का विरोध करते दिखते हैं, लेकिन उन्हें सत्तासीन बड़े पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादी ताकतों का समर्थन नहीं प्राप्त है और हम जानते हैं कि उनके समर्थन के बिना मोदी सरकार को ना तो संसदीय रास्ते से हराया जा सकता है और ना ही अन्य गैर-संसदीय या अवैध रास्तों से (जाहिर है, बुर्जुआ विपक्ष के द्वारा)।

बिहार में, शासक पार्टियों जदयू और भाजपा के बीच कटु आतंरिक संघर्ष चलने के बाद भी नीतीश कुमार के पास भाजपा के साथ रहने के अलावा और कोई विकल्प मौजूद नहीं है।

समग्रता में केंद्र सरकार की पूरी मशीनरी दिन रात एक कर के कैसे भी बिहार और बंगाल में बड़ी जीत सुनिश्चित करना चाहती है ताकि जनतंत्र, जनतांत्रिक अधिकारों और कम्युनिस्टों पर अंतिम रूप से हमले करने से पहले बुर्जुआ विपक्ष की तरफ से आने वाली किसी प्रकार की चुनौती की सम्भावना पूरी तरह खत्म हो जाए। तब तक जनतंत्र का आवरण बनाए रखने में इन्हें कोई आपत्ति नहीं है। (क्रमशः)

(मेहनतकश वर्ग के मुद्दों के लिए समर्पित पत्रिका ‘यथार्थ’ से साभार। यह लेख बहस के लिए है और इसमें विचार लेखक के हैं। ये ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी की इससे सैद्धांतिक सहमति हो। )

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