शांता कुमार समिति की सिफारिशेंः किसान बचेंगे या मोदी-2

किसान

By एसवी सिंह

शेखी बघारते हुए लम्बे-चौड़े, ऊलजलूल वादे, कैसे पूरे होंगे इसकी फ़िक्र क्यों की जाए जब पूरे करने ही नहीं हैं, एकाधिकारी पूंजीपतियों की मनचाही आर्थिक मदद, ताबेदार, बिक चुका मिडिया और ऊपर से कट्टर राष्ट्रवाद और मजहबी खुमारी ने मिलजुलकर ऐसी भयानक लहर पैदा की कि लोकसभा चुनाव परिणामों पर खुद भाजपा यकीन नहीं कर पाई!!

सत्ता हासिल कर सरकार ने अपने ‘असली’ काम में लगने के लिए इन्तेज़ार में बिलकुल वक़्त नहीं गंवाया। अगस्त 2014 में ही हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री तथा ‘संघ विचारक’ शांता कुमार की अध्यक्षता में एक 6 सदस्यीय समिति गठित की गई जिसके अन्य सदस्य थे; हरियाणा और पंजाब के मुख्य सचिव, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग भूतपूर्व चेयरमैन अशोक गुलाटी जो इन कृषि कानूनों के सूत्रधार हैं, भारतीय खाद्य निगम के चेयरमैन, आई आई एम अहमदाबाद के जी रघुराम तथा हैदराबाद विश्वविद्यालय के जी ननचैय्या। उन्हें सौंपा गया काम था; भारतीय खाद्य निगम (FCI) की सम्पूर्ण कार्य पद्धति, वित्तीय संरचना एवं प्रशासन में ‘सुधार’ लाने के लिए क्या किया जाए?

शांताकुमार समिति की सिफारिशों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि मौजूदा कृषि नीति बदलाव की तैयारी 2014 से ही शुरू हो चुकी थी।

सिफारिशें

  • खाद्य सुरक्षा (सरकारी सस्ते गल्ले) का लाभ जो मौजूदा समय देश के 67% गरीबों को मिल रहा है उसे घटाकर सिर्फ 40% लोगों तक ही सीमित कर दिया जाए। अनाज और दूसरे खाद्य पदार्थों की खरीद की छूट निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी दे देनी चाहिए। मतलब कृषि उपज व्यापार का निजीकरण किया जाना चाहिए।
  • देश के 6 राज्यों; पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भारतीय खाद्य निगम के सम्पूर्ण कामकाज को राज्य सरकारों को सोंप दिया जाना चाहिए।
  • केंद्र द्वारा न्यूनतम समर्थन (MSP) मूल्य घोषित होने के बाद भी कुछ राज्य सरकारें उसमें जो अतिरिक्त अनुदान राशी जोड़ देती हैं। ये प्रथा तत्काल बंद होनी चाहिए।
  • खाद्य अनुदान (सरकारी सस्ते गल्ले) की जगह नकद पैसे लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे जमा कर दिए जाएं। ऐसा करने से सरकारों को अनुदान राशी में रु 33000 करोड़ रुपये की बचत होगी। इस बात से ये स्पष्ट हो जाता है की जब भी अनुदान की जगह लाभार्थी को नकद भुगतान की बात की जाती है तो वो वास्तव में उक्त लाभ/ अनुदान को बंद करने की ही कवायद होती है वरना इतनी भारी रकम की ‘बचत’ कैसे हो सकती है!!
  • सरकार की ‘चावल उगाही नीति’ के तहत, सरकार की जरूरत के मुताबिक, चावल मिलों को चावल की एक निश्चित मात्रा (25% से 75%) सरकार को बाज़ार भाव से कम एक निश्चित भाव से देनी होती है। जिसे सरकार अनाज के सस्ते गल्ले की दुकानों द्वारा वितरण के लिए उपलब्ध कराती है। बाकी बचे चावल को चावल मिल मालिक खुले बाज़ार में बेचकर अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। समिति ने सरकार की इस चावल उगाही नीति को बंद करने की सिफारिश की। मतलब सरकारी दुकानों द्वारा सस्ता गल्ला उपलब्ध कराने को बंद करने को सीधे तरह ना कहकर उसी बात को घुमा फिराकर कहा गया। चावल मिल मालिकों के मुनाफ़े की इतनी चिंता करने की वजह क्या है, इस बाबत कुछ नहीं कहा गया!!
  • खाद्य भण्डारण को निजी कंपनियों को दिया जाए। भण्डारण के बाद किसान विक्रेता को एक वेयरहाउस रसीद जारी की जाए जिसे गिरवी रखकर किसान बैंकों से कर्ज़ ले सकें।
  • भारतीय खाद्य निगम को भी अनाज को खुले बाज़ार में बेचने की छूट दी जाए। इसे ‘व्यापार में लचीलापन’ लाना बोला गया ठीक वैसे ही जैसे सरकार हर वक़्त ‘व्यापार करने में सरलता’ प्रदान करने की बात कर मालिकों को मजदूर श्रम की खुली लूट की छूट देती रहती है!!
  • समिति ने 3 बहुत चौंकाने वाले तथ्यों को स्वीकार किया। पहला- कुल 6% किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर अपना अनाज बेच पाते हैं, दूसरा- सरकारी खाद्य वितरण में कुल 40 से 50% की चोरी (लीकेज) होती है और तीसरा- 40 से 50% गरीबों को सस्ते गल्ले का लाभ नहीं मिलता जिसके वे हकदार हैं। दर्दनाक विडम्बना देखिए कि इस चौंकाने वाली सरकारी बेईमानी को स्वीकार कर उसे दूर करने और इस चोरी के लिए ज़िम्मेदार लोगों को दण्डित करने की सिफारिश करने के बजाए इस लूट की स्वीकारोक्ति को खाद्यान्न खरीदी और वितरण का निजीकरण करने के लिए इस्तेमाल किया गया!!
  • एक और सिफारिश गौर करने लायक है। मंडी समितियां गेहूं और चावल की खरीदी पर जो टैक्स लेती हैं उसे एक दम कम किया जाए!! उदाहरण के लिए पंजाब में इस मद पर लिए जाने वाले कर को 14% से घटाकर मात्र 3 या 4% करने को कहा गया!!

ज़ाहिर है कि शांता कुमार समिति का गठन और उसकी सिफारिशें मौजूदा कृषि नीति बदलाव की शुरुआत थीं।

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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