किसान आंदोलन से बीजेपी और आरएसएस क्यों सकते में? कुछ सवाल…- किसान आंदोलन-5

By एस.एस. माहिल

यह संघर्ष किसानों का जरूर है लेकिन पंजाब के सभी समुदाय इसके साथ हैं। संपूर्ण राजनीतिक वर्ग आंदोलन की हिमायत में है। कांग्रेस ने खुलकर समर्थन किया है।

अकाली दल ने शुरू में यह कहकर इन कानूनों की तरफदारी करने की कोशिश की थी कि कांग्रेस किसानों को गुमराह करने की कोशिश कर रही है, जबकि यह कानून किसानों के हित में है।

अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल केंद्र सरकार में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिह तोमर के एक पत्र का हवाला देकर बता रहे थे कि केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था का बरकरार रखने के लिए वचनबद्घ है।

बाद में, यह देखकर कि उनके इस रुख से पार्टी किसानों से अलग-थलग हो जाएगी, अकाली दल ने भी पाला बदल लिया। केंद्र में उसके एकमात्र मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया है।

इस प्रकार अकाली दल राजग को छोड़ करके किसानों के आंदोलन का समर्थन में आने के लिए मजबूर हो गया है। अरविंद केजरीवाल की आप ने भी इस तीन कानूनों के प्रति अपना विरोध जाहिर किया है।

इसके बावजूद, ये पार्टियां – आप और अकाली दल, मोदी और उनकी सरकार के विरोध की जगह राज्य की कांग्रेस सरकार को निशाना बना रही हैं। इन सभी दलों का मकसद 2022 के चुनाव में चंडीगढ़ में सत्ता हस्तगत करना है।

जहां तक भाजपा का ताल्लुक है, उसमें भी मतभेद हैं। भाजपा के वे नेता, जिनका आधार ग्रामीण इलाकों में है, इन तीन कानूनों का विरोध और आंदोलन का खुलकर समर्थन तो नहीं कर पा रहे हैं।

इसके बावजूद, आंदोलित किसानों के प्रति उनका रुख सकारात्मक है। वे किसानों और सरकार दोनों से आग्रह कर रहे हैं कि आपस में बैठकर बातचीत करके समस्या के समाधान का प्रयास करना चाहिए।

वे किसान संगठनों और सरकार के बीच माध्यम बने हुए हैं। लेकिन भाजपा के मुख्य नेता, जिनका आधार शहरों में है, किसानों के इस आंदोलन के सख्त विरोधी हैं और आंदोलन के प्रति विष वमन कर रहे हैं।

ये किसान नेताओं को बिचौलिए और शहरी नक्सल करार दे रहे हैं। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व का भी ऐसा ही रवैया है।

खुद मोदी ने बिहार में चुनाव अभियान के दौरान किसानों के आंदोलन को बिचौलियों का आंदोलन बताया था और जोर-शोर से ऐलान किया था कि ये तीन विधेयक और जम्मू कश्मीर के बारे में लिए गए निर्णयों को कभी रद्द नहीं किया जाएगा।

इस प्रकार मोदी ने किसानों के इस संघर्ष की तुलना कश्मीर की जनता के संघर्ष से की है।

पंजाब का अवाम संघर्ष में एकजुट है। विभिन्न शहरों की औद्योगिक संस्थाएं और पंजाब स्थित उनकी शाखाओं ने किसान आंदोलन का समर्थन किया है। राज्य व्यापार मंडल और इसी प्रकार विभिन्न शहरों में व्यवसायी संगठन आंदोलन की हिमायत कर रहे हैं।

ट्रांसपोर्टरों के विभिन्न संगठनों ने आंदोलन के समर्थन में वचन देते हुए अपने वाहनों को आंदोलन के हित में मुफ्त प्रदान किया है।

पंजाबी फिल्मों के अभिनेता, निर्देशक और अन्य कलाकार आंदोलन और धरनों में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं, गायक आंदोलन के गीत गा रहे हैं।

पंजाबी संगीत का विषय अपराध, अपराधी गिरोहों के बीच युद्घ, हथियारों और नशाखोरी इत्यादि हुआ करते थे, अब उनकी ध्वनि किसानों के शोषण और उनपर जारी दमन को मुखर कर रही है।

वे लोग जो कि खुलकर संघर्ष में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं, विभिन्न तरीकों से आंदोलन का सहयोग कर रहे हैं। जैसे कि आटा, दाल, दूध और अन्य खाने व जरूरत के सामान, लाउडीस्पीकर, टेंट और धन आदि प्रदान करके वे मदद कर रहे हैं।

यह एक व्यापक जन आंदोलन बन चुका है।

जनता अंत तक संघर्ष करने के लिए सन्नद्घ है। किसान समझ रहे हैं कि उनका अस्तित्व खतरे में है। संघर्ष के लिए उनका हथियार संगठन ही है। असंगठित अवाम अपनी मंजिल नहीं पा सकता।

कुछ सवाल…

आंदोलन के नेतृत्व में विभिन्न वर्ग के नुमाइंदे हैं। इसमें गरीब किसान, मझौले किसान, धनी किसान और यहां तक कि जमींदार वर्ग के लोग भी हैं।

ऐसे लोग भी हैं जिनका किसानों या खेती-बाड़ी से कोई लेना-देना नहीं है। उनका मकसद सिर्फ यह है कि उनकी यह शोहरत हो जाए कि वे इस आंदोलन के नेता हैं।

आंदोलन की मुख्य शक्ति मझौले किसान और गरीब किसान हैं। धनी किसान भी भारी तादाद में आंदोलन में सम्मिलित हैं। राष्ट्रव्यापी स्तर किसानों को संगठित किए बिना यह आंदोलन अपना मकसद हासिल नहीं कर सकता है।

इसे समझ करके विभिन्न राज्यों में सक्रिय किसान संगठनों को एकजुट करने का प्रयास किया जा रहा है।

बहरहाल इन प्रयासों का नतीजा यह है कि धनी किसान और जमींदार वर्ग के नुमाइंदे अधिक प्रमुख भूमिका में हैं। यह स्थिति आंदोलन के हित मे नहीं है।

धनी किसानों की प्रवृति समझौता परस्त होती है, मझौले किसानों में भी धनी किसान के पिछलग्गूपन का रुझान रहता है। वे संगठन जो कि गरीब और छाेटे किसान समुदायों की नुमाइंदगी करते हैं, आंदोलन के नेतृत्व में उनकी हिस्सेदारी कम है।

इन स्थितियों में किसी आधे-अधूरे समझौते की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता। इस तरह से एक बेहद जटिल स्थिति संघर्ष के सामने है। आंदोलन में सम्मिलित क्रांतिकारी ताकतों को सचेत रहना होगा।

दो बातें खास गौरतलब हैं- एक, जनता अंत तक संघर्ष के लिए मुस्तैद है और व्यापक एकता इस संघर्ष की बुनियाद है। क्रांतिकारी ताकतों को एेसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे एकता में दरार उत्पन्न हो।

दूसरा, क्रांतिकारी ताकतों को किसी भी स्थिति में इस संघर्ष में उदासीन यहा अलग-थलग नहीं होना है।

संघर्ष को उसके मुकाम तक पहुंचाने के लिए लगे रहना होगा, विचलित हरगिज नहीं होना है, संघर्ष के दौरान हर ख़तरे हर जोख़िम का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।

संघर्ष को बेहद सूझबूझ और बुद्घिमानी के साथ आगे बढ़ाने के जरूरत है। मकसद है संघर्ष की कामयाबी! (समाप्त)

(लेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और कोई ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यनिटी की इससे सहमति हो।)

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