नए लेबर कोड में हड़ताल करना गुनाह, यूनियनों और मज़दूरों पर भारी ज़ुर्माने का प्रावधानः भाग-3

gudgaon protest

By दिनकर कपूर

समूचे श्रम क़ानून की आत्मा है औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, लेकिन मोदी सरकार ने जो चार नए लेबर कोड बनाए हैं, उससे ही इसे निकाल दिया गया है।

इस महत्वपूर्ण कानून की आत्मा को ही सरकार ने लागू किए जा रहे लेबर कोडों में जगह नहीं दी।

अब श्रम विभाग के अधिकारी श्रम कानून के उल्लंधन पर उसे लागू कराने मतलब प्रर्वतन (इनफोर्समेंट) का काम नहीं करेंगे बल्कि उनकी भूमिका सुगमकर्ता (फैसीलेटर) की होगी यानी अब उन्हें मालिकों के लिए सलाहकार या बिचौलिया बनकर काम करना होगा।

हड़ताल करना इस नई संहिता के प्रावधानों के अनुसार असम्भव हो गया है। इतना ही नहीं हड़ताल के लिए मजदूरों से अपील करना भी गुनाह हो गया है जिसके लिए जुर्माना और जेल दोनों होगा।

औद्योगिक सम्बंध कोड की धारा 77 के अनुसार 300 से कम मजदूरों वाली औद्योगिक ईकाईयों को कामबंदी, छंटनी या उनकी बंदी के लिए सरकार की अनुमति लेना जरूरी नहीं है।

साथ ही घरेलू सेवा के कार्य करने वाले मजदूरों को औद्योगिक सम्बंध कोड से ही बाहर कर दिया गया है।

हाल ही में देश कोरोना महामारी में लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा का गवाह बना और इन मजदूरों की हालात राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनी थी।

इसलिए इनके आवास, आने जाने की सुविधा, सुरक्षा जैसे सवाल महत्वपूर्ण सवालों पर पहल वक्त की जरूरत थी।

उसे भी इन कोड में कमजोर कर दिया गया, व्यावसायिक सुरक्षा कोड की धारा 61 के अनुपालन के लिए बने नियम 85 के अनुसार प्रवासी मजदूर को साल में 180 दिन काम करने पर ही मालिक या ठेकेदार द्वारा आवगमन का किराया दिया जायेगा।

अमानवीयता की हद यह है कि कोड में आपातकाल की स्थिति में बदलाव करने के दायरे को बढाते हुए अब उसमें वैश्विक व राष्ट्रीय महामारी को भी शामिल कर लिया गया है।

ऐसी महामारी की स्थिति में मजदूरों को भविष्य निधि, बोनस व श्रमिकों के मुफ्त इलाज के लिए चलने वाली कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) पर सरकार रोक लगा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में बने सातवें वेतन आयोग द्वारा तय न्यूनतम वेतन 18000 रूपए को मानने की कौन कहे सरकार ने तो लाए नए मजदूरी कोड में मजदूरों की विशिष्ट श्रेणी पर ही बड़ा हमला कर दिया है।

अभी अधिसूचित उद्योगों के अलावा इंजीनियरिंग, होटल, चूड़ी, बीड़ी व सिगरेट, चीनी, सेल्स एवं मेडिकल रिप्रेंसजेटेटिव, खनन कार्य आदि तमाम उद्योगों के श्रमिकों की विशिष्ट स्थितियों के अनुसार उनके लिए पृथक वेज बोर्ड बने हुए है, जिसे नया कोड समाप्त कर देता है।

इतना ही नहीं न्यूनतम मजदूरी तय करने में श्रमिक संघों को मिलाकर बने समझौता बोर्डों की वर्तमान व्यवस्था को जिसमें श्रमिक संघ मजदूरों की हालत को सामने लाकर श्रमिक हितों में बदलाव लाते थे उसे भी खत्म कर दिया गया है।

वैसे तो आर्थिक सुधारों की 1991 में शुरू की गई प्रक्रिया में श्रम कानूनों को एक बाद एक बनी केन्द्र और राज्य सरकारों ने बेहद कमजोर कर दिया था अब ये हाथी के दिखाने वाले दांत ही रह गए थे जिसे भी मोदी सरकार ने उखाड़ दिया है।

वास्तव में ‘ईज आफ डूयिंग बिजनेस’ के लिए मोदी सरकार द्वारा लाए मौजूदा लेबर कोड मजदूरों की गुलामी के दस्तावेज है। सरकार इनके जरिए रोजगार सृजन के जो भी सब्जबाग दिखाए सच्चाई यही है कि ये रोजगार को खत्म करने और लोगों की कार्यक्षमता व क्रय शक्ति को कम करने वाले ही साबित होंगे।

इससे मौजूदा आर्थिक संकट घटने के बजाए और भी बढ़ेगा और पर्याप्त कानूनी सुरक्षा के अभाव में औद्योगिक अशांति बढेगी जो औद्योगिक विकास को भी बुरी तरह से प्रभावित करेगी।

देशी विदेशी कारपोरेट हितों के लिए लाए ये कानून पूंजी के आदिम संचय को बढ़ायेंगे और भारत जैसे श्रमशक्ति सम्पन्न देश में श्रमशक्ति की मध्ययुगीन लूट को अंजाम देंगे।

इसलिए इन लेबर कोड को खत्म कराने और सम्मानजनक रोजगार के लिए लड़ना मजदूर वर्ग के सामने आज का सबसे बड़ा कार्यभार है।

साथ ही देशी विदेशी कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ जारी किसान आंदोलन में सक्रिय रूप से मजदूर वर्ग को उतरना चाहिए ताकि इस लड़ाई को एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई में बदल कर देश में जन राजनीति को मजबूत किया जाए।

उम्मीद है भारत का मजदूर आंदोलन इस दिशा में अपने कदम आगे बढ़ायेगा। (समाप्त)

(लेखक वर्कर्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं।)

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