लेबर कोड और कृषि बिल पास कर मोदी ने पूंजीपति वर्ग की 30 साल पुरानी इच्छा पूरी कर दी

By अजीत सैनी

वर्तमान समय में केन्द्र में शासित भजपा सरकार ने कृषि से सम्बन्धित तीन बिल संसद के दोनों सदनों से पारित करा किसानों के विरोध को जन्म दिया है। इसके साथ-साथ भाजपा सरकार ने 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर 4 श्रम संहिताओं में समेटते हुये पूंजी के ऊपर लगे श्रम के प्रतिबन्धों को लगभग ख़त्म कर दिया है।

इसके व्यापक प्रभाव क्या होंगे? श्रम कानूनों में बदलाव की मांग लगभग तीन दशक से भारत का पूंजीपति वर्ग कर रहा था। 1991 की नई आर्थिक नीतियों के बाद से लगातार कटौती कार्यक्रम (जनकल्याणकारी सुविधाओं में) जारी है।

सरकारों द्वारा किये जा रहे इन सब बदलावों के बावजूद एक बात जो हम नजरअंदाज कर रहे हैं, वह है 2019 में मोदी सरकार द्वारा पास किये गये कुछ महत्वपूर्ण बिल जैसे जम्मू-कश्मीर पुनगर्ठन विधेयक 2019 (धारा 370 को हटाने वाला विधेयक), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NRC), नागरिकता संशोधन कानून 2019 (CAA) व यूएपीए (संशोधन) कानून 2019, जैसे विधेयक संविधान की मूल प्रस्तावना व संघीय ढांचे पर चोट करने के साथ-साथ समाज में ध्रुवीकरण पैदा करते हैं।

परन्तु इन काले कानूनों के मूल में क्या है? तथा इन काले कानूनों से किसके हित सधेंगे, यह समय के साथ स्पष्ट हो रहा है।

पांच अगस्त 2019 को विधेयक पारित कर जम्मू – कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर उसे केन्द्र शासित राज्य में तब्दील कर दिया गया था। राज्य की स्वायतता खत्म कर राज्य में रहने वाले नागरिकों को विशेष अधिकार से विहीनता की स्थिति में धकेल दिया गया था।

इस विधेयक के बाद भारत के प्रति जम्मू-कश्मीर की जनता की थोड़ी बहुत बची खुची सहानुभूति भी समाप्त हो गई। इस विधेयक के बाद आबादी के एक बड़े हिस्से में खुशी की लहर दौड़ गई थी। इस विधेयक से जम्मू-कश्मीर में हर नागरिक प्रभावित हुआ। लेकिन सबसे ज्यादा मार मेहनत-मजदूरी करने वाले नागरिकों पर पड़ी। विधेयक के बाद जम्मू-कश्मीर जनता की स्थिति वैसी बन गई थी जैसी कि 24 मार्च 2020 को कोरोना महामारी के कारण लाॅक डाउन के दौरान मजदूर-मेहनतकश जनता की बनी थी।

उसमें भिन्नता यही थी कि जम्मू-कश्मीर की उस स्थिति को देश के बाकी हिस्सों में हर्षोउल्लास का माहौल बनाया गया। जिसमें मीडिया की भूमिका से इंकार नही किया जा सकता। जम्मू-कश्मीर की जनता की आवाजों को बंदूकों से दबाने के साथ-साथ जीने के मूलभूत अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।

देश के भिन्न-भिन्न हिस्सो में कश्मीरी नागरिकों खासकर मजदूरों पर हिन्दुत्ववादी (भाजपा से सम्बन्धित व समर्थित संगठनों) लोगोें द्वारा जिनको सत्ता का संरक्षण प्राप्त था, हमले किये गये। केवल कुछ प्रगतिशील व क्रांतिकारी संगठनों व पंजाब के किसान संगठनों के विरोध के अलावा अन्य विरोध नहीं दिखाई दिया।

बल्कि मीडिया द्वारा इस विधेयक के विरोध करने वालो को पाकिस्तानी समर्थक बताकर उनके विरोध का गला घोंटा गया। अगर हम कोरोना काल के शुरूआती दौर को देंखे तो शासक वर्ग ने महामारी को रोकने व उसके उपायो की अपनी असफलता को छुपाने के लिये महामारी का भी साम्प्रदायिकरण किया गया।

प्रधानमंत्री में कोरोना भगाने के आहृवान जैसे थाली, ताली बजाना, दीपक जलाना कभी बंद करना आदि को लेकर कई जगह मुश्लिम परिवारों पर हमले किये गये।

हरियाणा के जींद ज़िले के ढ़ाटरथ गांव में एक मुसलमान परिवार की पिटाई इसलिये की गई कि कोरोना को भगाने के नाम पर प्रधान मंत्री के लाईट बंद कर दीया जलाने के आहृवान को उन्होंने नहीं माना था। पूरे लाॅक डाउन में भारत में कोरोना का जिम्मेदार तबलीगी जमात और इस तरह मुस्लिम समुदाय को ठहरा दिया गया। यहां तक कि कई जगह मुसलमान मजदूरों द्वारा सब्जी बेचने पर भी मोहल्लों में प्रतिबंध लगा दिया गया।

इसी प्रकार CAA और NRC जैसे काले कानूनों द्वारा एक समुदाय विशेष के उपर हमला बोला गया। यह एक समुदाय विशेष के उपर एक बड़ा क़ानूनी हमला है। यह कानून एक समुदाय विशेष को भारत के अन्दर रहने पर कानूनी प्रतिबंध लगाता है।

यहां तक कि इस समुदाय को यह भी प्रणमाणित करना पड़ेगा कि अगर उनको हिन्दुस्तान में रहना है तो उनहे अपना धर्म, खान-पान, रहन-सहन सब उन शासकों के अनुरूप बदलना पड़ेगा जैसा वे चाहते हैं, वरना यहां पर रहने का उन्हे कोई अधिकार नही है।

इसके ख़िलाफ़ उठे प्रचंड आंदोलन का अंत दिल्ली में सुनियोजित दंगे करवाकर किया गया। ओर इन दंगों का दोषी उन प्रगतिशील लोगों को ठहरा दिया ओर उन पर यूएपीए जैसे काले कानूनों के तहत मुकदमे दर्ज कर जेलों में ठूस दिया गया।

इन विधेयकों का जो दूसरा ओर मुख्य पक्ष है वह है आर्थिक। किसी सिद्वांतकार की एक बात सही है कि आर्थिक संकट ही सामाजिक और राजनैतिक संकट को जन्म देता है। जिस समय अगस्त 2019 में ये बिल पास किये जा रहे थे, उसी समय देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट (आर्थिक मंदी) की बातें कही जा रही थीं।

देश में आर्थिक मंदी की चर्चायें तेज हो रही थीं। खुद सरकार के अर्थशास्त्री भी आर्थिक संकट की बात कहने लगे थे। उसी समय फैक्ट्रियों से बड़े पैमाने पर छंटनी व तालाबंदी की प्रक्रिया अपनाई जा रही थी।

छंटनी व तालाबंदी का ऐसा आलम था कि 2000-2500 मजदूर अकेली-अकेली फैक्ट्री से निकाले जा रहे थे। अगस्त 2019 में मारूति ने लगभग 3000 ठेका मजदूरों को काम से निकाल दिया था। वहीं होण्डा कम्पनी मानेसर ने 5 नवम्बर 2019 को जब कुछ ठेका मजदूरों को काम कम होने के कारण बिना वेतन के छुट्टी का नोटिस लगाया तो प्रबंधन ने बाकी बचे सभी 2500 ठेका मजदूरों को फैक्ट्री से निकाल दिया। इन ठेका मजदूरों को फैक्ट्री में काम करते हुये लगभग 10 से 12 साल का समय हो चुका था।

मंदी की चर्चाओं के बीच सरकार ने पूंजीपति वर्ग को कार्पोरेट टैक्सो में भारी छूट दी गई तथा मंदी के नाम पर राहत पैकेज भी दिये गये। जबकि मंदी का पूरा भार मजदूर वर्ग के कंधों पर डाल दिया गया। उसी समय सरकार ने राम मन्दिर का ऐजेण्डा पेश कर मजदूरों के उठने वाले प्रतिरोध पर बर्फ जमाने का काम किया।

राम मन्दिर की मुहिम में मजदूरों खासकर मध्यमवर्गीय मजदूरों व ट्रेड यूनियन नेताओं का बड़ा हिस्सा शामिल था। वह श्रम कानूनों पर सरकार के हमले को नही देख पा रहे थे। इन कानूनों के मूल में आर्थिक पहलू ज्यादा प्रभावी रहा है। संविधान व लोकतंत्र अब गौण पहलू बन गये हैं।

अब अगर सितम्बर 2020 की हम बात करें तो सरकार ने कृषि से सम्बन्धित तीन बिल, कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020, कृषक कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020, आवश्यक वस्तु विधेयक (संशोधन) 2020 व 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर 4 श्रम संहिताओं को संसद के दोनों सदनों से पास करा लिये गये है।

कृषि से सम्बन्धित बिलो में मण्डी सिस्टम खत्म कर किसान की फसल को सीधा बाजार के हवाले किया जायेगा।

आवश्यक वस्तुओं जैसे अनाज, आटा, दाल, प्याज, खाद्य तेल आदि आवश्यक वस्तुओ की सूची से हटा दिये गये है जिससे की जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा। काॅन्ट्रैक्ट फाॅर्मिंग को बढ़ावा दिया जायेगा। देश के छोटे व मझोले किसान को तबाह बर्बाद कर उसे मजदूर बनने पर विवश किया जायेगा। इन कृषि विधेयक के लागू होने के बाद सरकार खेती पर किये जाने वाले तमाम खर्च से मुक्त हो जायेगी ओर बड़े-बड़े कार्पोरेट किसानों के श्रम की सीधे लूट करेंगे।

श्रम कानूनों पर पूंजीपति वर्ग की नजरें काफी लम्बे समय से थी। 1991 के नये आर्थिक सुधारों के एक लम्बे अन्तराल के बाद पूंजीपति वर्ग श्रम कानूनों को अपने पक्ष में बना पाने में सफल हुआ है। 1991 की नई आर्थिक नितीयों को क्रांगेस सरकार से लेकर सयुंक्त मोर्चा की सरकारें व भाजपा की सरकारें आई व उन्होने पूंजीपति वर्ग के ऐजेण्डे को लगातार आगे बढ़ाया है।

परन्तु पूंजीपति वर्ग धीरे-धीरे हो रहे बदलावों से संशोधनों से नाखुश था। उसने 2014 के अन्दर भाजपा जैसी फासिस्ट पार्टी को सत्ता में स्थापित कर श्रम कानूनों को लम्बी छंलाग के माध्यम से अपने पक्ष में कर लिया। अब हम वापिस 2014 के बाद के समय काल में पहुंच जायेंगे और खड़े होकर उस सामाजिक उथल-पुथल को देखेंगे, जिसके मूल में श्रम की लूट के राज छिपे हुये है।

शाशक वर्ग के काले कानून केवल समुदास विशेष के साथ साथ पूंजीपति वर्ग के आर्थिक हितो को साधते है। आज के मजदूर व किसान विरोधी काने कानून जिसमें श्रम की लूट को खुले रूप में लूटा जा सके की जमीन तैयार करने का काम 2019 में पारित विधेयकों ने किया, जिस पर बाकी जनता चुप्पी लगा चुकी थी। हमारी भोली-भाली मजदूर व मेहनतकश जनता पूंजीपतिवर्ग के मंसूबो को नही समझ सका जिसको पूंजीपति वर्ग 1991 से पाले हुये था।

इस प्रकार के मजदूर – मेहनतकश जनता विरोधी क़ानूनों के पास होने की जमीन हमने स्वयं मुहैया करा दी थी। 2014 से 2018 के बीच अंधराष्ट्रवादी व धार्मिक उन्माद पैदा कर समाज में गाय के नाम पर मुस्लिम युवकों की हत्याएं की गईं। मजदूर मेहनतकश आवाम ने अपनी कौमी एकता की भावना को सरकार व पूंजीपति वर्ग के एजेण्डे के सामने धराशायी कर दिया। इसी कौमी एकता के दम पर देश को अंग्रेज़ी दासता से लड़कर आज़ादी मिली थी।

एक ओर दूसरी बात जो बहुत ही महत्वपूर्ण है, वह है भारत का संविंधान। अक्सर हम देखते हैं कि इस प्रकार के विधेयकों के विषय में सबसे पहले हमारा ध्यान संविधान की ओर जाता है। इस रूप में कि यह बिल या आने वाले बिल खासकर मजदूर मेहनतकश जनता विरोधी बिल तो संविधान के ख़िलाफ़ है, लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है।

जैसा कि जम्मू-कश्मीर पुर्नगठन विधेयक 2019 व कृषि से सम्बन्धित बिलों में वोटिंग न होने पर देखा गया। संविधान केवल एक खास वर्ग के हितो की रक्षा व उसके हितों को ही आगे बढ़ाता है।

इस संविधान व लोकतंत्र से मेहनतकश जनता को जितनी आजादी व जितना न्याय मिलना था वह मिल चुका है। पूंजीवादी गणतंत्र (संविधान) में इससे ज्यादा आजादी व न्याय नहीं मिल सकता। यह पूंजीवादी राज्य अपनी तमाम प्रगतिशीलता खो चुका है या यह कहना ज्यादा सार्थक होगा कि अपने राज्य को बनाये रखने के लिये व उसे चलाने के लिये यह प्रगतिशील विचारों, ज्ञान-विज्ञान का विरोधी हो गया है।

एक ओर विभ्रम जनता में पैदा किया जाता है कि संसद में स्वयं मजदूर नेता या मजदूर पार्टी पहुंच जाये यानि जो संसद के रास्ते से अच्छा करने की वकालत करते है उससे यह सम्भव नहीं है। क्योंकि यह पूंजीवादी गणतंत्र उनको अपने मातहत कर लेता है।

असल आजादी व असल गणतंत्र का अध्याय मज़दूर मेहनतकश जनता को स्वयं निर्मित करना होगा। इसका उदाहरण हमारे सामने मौजूद है। 1917 की रूसी क्रांति व उसके बाद का उनका (मजदूरों -मेहनतकशों) अपना संविधान व गणतंत्र हमें अपना पथ प्रदर्शक बनाना होगा और एक नए मानवता के अध्याय की शुरुआत करनी होगी।

(लेखक ट्रेड यूनियन नेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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