न मैं माफ़ी मांगूगा न दया की भीख, सुप्रीम कोर्ट पर प्रशांत भूषण का पूरा बयान

Prashant Bhushan

भारत के सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एसए बोबड़े को लेकर किए गए ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने प्रशांत भूषण को दोषी ठहराया था और गुरुवार को इस पर सज़ा सुनाई जानी थी।

लेकिन सुनवाई करने वाले जजों ने प्रशांत भूषण को माफ़ी मांग लेने के लिए दो तीन दिन का और वक़्त दे दिया।

हालांकि हैरानी की बात है कि मोदी सरकार की ओर से पेश अटार्नी जनरल वेणुगोपाल ने अदालत से सज़ा न देने की अपील की।

कोर्ट में प्रशांत भूषण ने जो बयान दिया उसका अद्यतन यहां अनुवाद दिया जा रहा है।

प्रशांत भूषण का पूरा बयान-

इस कोर्ट के फ़ैसले को मैंने ध्यान पूर्वक पढ़ा है। मुझे इस फैसले पर दुख है कि उसने मुझे अवमानना का दोषी माना, जिसके गौरव का मान रखने की मैंने पिछले तीन दशकों से एक दरबारी या जीहुजूरी की तरह नहीं बल्कि एक विनम्र रक्षक की तरह कोशिश की है। जिसकी मुझे निजी और पेशेवर क़ीमत भी अदा करनी पड़ी है। मुझे पीड़ा है इसलिए नहीं कि मुझे सज़ा दी जा सकती है बल्कि इसलिए कि मुझे पूरी तरह ग़लत समझा गया।

मैं हैरान हूं कि अदालत ने ‘न्याय प्रणाली की संस्था पर द्वेषपूर्ण, अपमानजक और जानबूझकर’ किए गए हमले का दोषी पाया है। मैं निराश हूं कि कोर्ट ने इस तरह के हमले के पीछे की मेरी मंशा कोई सबूत बिना दिए इस निर्णय पर पहुंच गई।

मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि मैं इस बात से बेहद निराश हूं कि कोर्ट ने उस शिकायत की एक कॉपी भी मुझे मुहैया कराने की ज़रूरत नहीं समझी जिसके आधार पर स्वतः संज्ञान का नोटिस जारी किया गया। और ना ही उसने मेरे जवाबी हलफनामे या मेरे वकील द्वारा दी गई दलीलों पर कोई जवाब तक देना ज़रूरी समझा।

मेरे लिए ये विश्वास कर पाना बेहद मुश्किल हो रहा है कि कोर्ट ने मेरे ट्वीट को भारतीय लोकतंत्र के सबसे प्रमुख स्तंभ की नींव को हिला सकने वाला पाया।

मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि ये दोनों ट्वीट मेरे प्रमाणिक विश्वास को प्रकट करते हैं और बोलने की आज़ादी को ही प्रतिबिंबित करते हैं जो कि किसी भी लोकतंत्र में मान्य है।

असल में, सार्वजनिक चर्चा खुद न्यायपालिका के स्वस्थ क्रियाकलाप के लिए वांछित है।

मेरा ये मानना है कि किसी भी संस्था की मुक्त आलोचना लोकतंत्र में ज़रूरी है ताकि संवैधानिक व्यवस्था को बनाए रखा जा सके।

हम अपने इतिहास के उन क्षणों में रह रहे हैं जहां उच्च आदर्श रोज़ाना के कामकाज से ऊपर होना चाहिए, संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा करना निजी और पेशेवर हितों से ऊपर होना चाहिए, वर्तमान पर ग़ौर करते समय किसी भी दशा में भविष्य के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों के निर्वहन में इसे रोड़ा नहीं बनना चाहिए।

इसके ख़िलाफ़ न बोलना अपने कर्तव्य के निर्वहन से मुंह मोड़ना होगा, खासकर मेरे जैसे न्यायालय से जुड़े होने वाले व्यक्ति के लिए।

मेरे ट्वीट उसी कर्तव्य को निबाहने की एक छोटी सी कोशिश से ज्यादा नहीं है, जिसे मैं अपने गणतंत्र के इतिहास के इस मोड़ पर अपनी सबसे बड़ी ड्यूटी माना है। मैंने ये ट्वीट किसी बेख्याली में नहीं किया है। मेरे प्रमाणिक राय को दर्शाने वाले उन ट्वीट्स के लिए माफ़ी मांगना मेरे लिए अगंभीर और अपमानजनक होगा।

इसलिए मैं विनम्रता पूर्वक बस राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उसी वाक्य का सहारा लेते हुए कहना चाहूंगा, जो उन्होंने अपने ऊपर किए गए मुकदमे की सुनवाई के दौरान कहा था,- “मैं दया करने के लिए नहीं कहूंगा। मैं उदारता बरतने की अपील भी नहीं करूंगा। मैं यहाँ वह दंड भुगतने के लिए सहर्ष मौजूद हूँ जो क़ानूनन मुझे दिया जा सकता है, जिसे अदालत ने मेरा अपराध माना है, लेकिन मुझे वह नागरिक के तौर पर अपना परम कर्तव्य लगता है।”

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