कारपोरेट के फ़ायदे के लिए मोदी ले आए हैं लेबर कोड, मज़दूरों से 12 घंटे की ड्यूटी कराने की दी छूटः भाग-1

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By दिनकर कपूर

जमाखोरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य के खात्मे, ठेका खेती के जरिए जमीनों पर कब्जा करने और देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालकर खेती किसानी को देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हवाले करने की आरएसएस-भाजपा की मोदी सरकार की कोशिश के खिलाफ पूरे देश के किसान आंदोलनरत है।

सरकार और आरएसएस के प्रचार तंत्र द्वारा आंदोलन को बदनाम करने, उस पर दमन ढाने और उसमें तोड़-फोड़ करने की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन न सिर्फ मजबूती से टिका हुआ है बल्कि उसके समर्थन का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है।

किसान विरोधी तीनों कानूनों को रद्द करने, विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है और ‘सरकार की मजबूरी-अडानी, अम्बानी, जमाखोरी‘ का नारा जन नारा बन रहा है।

पूरे देश ने देखा कि सरकार ने कैसे संसद को बंधक बनाकर तीनों किसान विरोधी कानूनों को बनाने का काम किया था। इसी तरह सरकार ने ठीक उसी समय देश के करोड़ों-करोड़ मजदूरों के भी हितों को रौंदने का काम किया।

अटल बिहारी सरकार में शुरू की गई आरएसएस की श्रम कानूनों को खत्म कर लेबर कोड बनाने की प्रक्रिया को मोदी सरकार ने अपनी दूसरी पारी में अमली जामा पहनाया और इसके लिए सबसे मुफीद समय उसने कोरोना महामारी के वैश्विक संकट काल को चुना।

इस मानसून सत्र में जब विपक्ष संसद में नहीं था तब बिना किसी चर्चा के उसने तीन लेबर कोड औद्योगिक सम्बंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं पास करा लिए और एक कोड जो मजदूरी के सम्बंध में है उसे सरकार ने 8 अगस्त 2019 को ही लागू कर दिया है।

अब इन सभी कोडो की नियमावली भी सरकार ने जारी कर दी है। सरकार ने मौजूदा 27 श्रम कानूनों और इसके साथ ही राज्यों द्वारा बनाए श्रम कानूनों को समाप्त कर इन चार लेबर कोड को बनाया है।

सरकार का दावा है कि सरकार के इस श्रम सुधार कार्यक्रम से देश की आर्थिक रैकिंग दुनिया में बेहतर हुई है।

कृषि विधेयकों के पक्ष में दलील रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी ने तो यहां तक कहा कि देश की तरक्की के लिए पुराने पड़ चुके कई कानूनों को खत्म करना बेहद जरूरी है और उनकी सरकार यह कर रही है।

देखना यह होगा कि सरकार जिन कानूनों को खत्म कर रही है वह वास्तव में देश की और उसमें रहने वाले आम जन की तरक्की के लिए जरूरी है या उनकी बर्बादी की दास्तां को नए सिरे से लिखा जा रहा है।

वास्तव में तो सैकड़ों वर्षों में किसानों, मजदूरों व आम नागरिकों ने अपने संघर्षो के बदौलत जो अधिकार हासिल किए थे उन्हें ही छीना जा रहा है।

क्योंकि सरकार ने आज तक अंग्रेजों के बनाए राजद्रोह जैसे काले कानूनों को तो खत्म नहीं किया उलटे इस कानून समेत यूएपीए, एनएसए जैसे कानूनों में जनता की आवाज उठाने वालों को जेल भेजना इस सरकार का स्थायी चरित्र बना हुआ है।

दरअसल श्रम कानूनों के खात्मे और बिन मांगे किसानों को गिफ्ट दिए गए कृषि कानूनों में सरकार की इतनी गहरी रूचि देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हितों के लिए है।

आइए देखे सरकार द्वारा लाए गए नए लेबर कोड और उसकी नियमावली में क्या है।

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं लेबर कोड के लिए बनाई नियमावली का नियम 25 के उपनियम 2 के अनुसार, किसी भी वर्कर के कार्य की अवधि इस प्रकार निर्धारित की जाएगी कि उसमें आराम के समय को शामिल करते हुए काम के घंटे किसी एक दिन में 12 घंटे से अधिक न हो।

जबकि यह पहले कारखाना अधिनियम 1948 में 9 घंटे था। मज़दूरी कोड की नियमावली के नियम 6 में भी यही बात कही गई है। व्यवसायिक सुरक्षा कोड की नियमावली के नियम 35 के अनुसार दो पालियों के बीच 12 घंटे का अंतर होना चाहिए।

नियम 56 के अनुसार तो कुछ परिस्थितियों, जिसमें तकनीकी कारणों से सतत रूप से चलने वाले कार्य भी शामिल हैं मजदूर 12 घंटे से भी ज्यादा कार्य कर सकता है और उसे 12 घंटे के कार्य के बाद ही ओवरटाइम यानी दुगने दर पर मज़दूरी का भुगतान किया जायेगा।

साफ है कि 1886 के शिकागो के हेमार्केट स्कावयर में मजदूरों आंदोलन और शहादत से जो काम के घंटे आठ का अधिकार मजदूरों ने हासिल किया था उसे भी एक झटके में सरकार ने छीन लिया।

यह भी तब किया गया जब हाल ही में काम के घंटे बारह करने के गुजरात सरकार के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी, उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा ऐसा ही करने पर वर्कर्स फ्रंट की जनहित याचिका में हाईकोर्ट ने जबाब तलबी की और सरकार को इसे वापस लेना पड़ा।

यहीं नहीं केन्द्रीय श्रम संगठनों की शिकायत को संज्ञान में लेकर अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए भारत सरकार को चेताया था कि काम के घंटे 8 रखना आईएलओ का पहला कनवेंशन है, जिसका उल्लंघन दुनिया के किसी देश को नहीं करना चाहिए।

साफ है कि इसके बाद देश के करीब 33 प्रतिशत मजदूर अनिवार्य छटंनी के शिकार हांेगे जो पहले से ही मौजूद भयावह बेरोजगारी को और भी बढ़ाने का काम करेगा। (क्रमशः)

(लेखक वर्कर्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं।)

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