आखिर आम हड़ताल के बावजूद मज़दूरों की ज़िंदगी पर क्यों नहीं फर्क पड़ रहा?

farmers protest at jantar mantar

भाजपा के बीएमएस को छोड़कर, लगभग सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने 26 नवंबर को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है। इन ट्रेड यूनियनों को कोई समस्या नहीं है।

उन्होंने अपने संगठन के कुछ लोगों के साथ एक सम्मेलन आयोजित किया और यह तय किया गया कि एक या दो दिन के लिए हड़ताल होगी। लेकिन जो मजदूर वास्तव में हड़ताल पर जाएंगे, वे मुसीबत में पड़ जाते हैं। वे क्या करेंगे?

हड़ताल में शामिल होंगे, या नहीं? तीस साल पहले नई आर्थिक नीति की शुरुआत के बाद से मालिकों के हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। फैक्टरियां ठेके पर काम करने वाले मजदूरों से भरी हुई हैं – जिनका मजदूरी बेहद कम है और कोई भी सुविधाएँ प्राप्त नहीं होतीं।

दूसरी ओर, 12-घंटे की ड्यूटी शुरू की जा रही है; काम का बोझ बढ़ रहा है, लेकिन वेतन नहीं बढ़ रहा है। मजदूर यह भी देख रहे हैं कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद से, मालिकों ने सरकार की मदद से कानून को नज़रंदाज़ कर जो चाहे कर रहे हैं।

पुराने श्रम कानून में जितना भी थोड़ी-बहुत बचे-खुचे सुविधाएँ प्राप्त होता था उसे भी एक झपट्टा में ले लिए गए – श्रम कानून को ही बदल दिया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि जब किसी भी कारखाने के मजदूर आन्दोलन में उतरते हैं तो तुरंत पुलिस-प्रशासन उनके खिलाफ टूट पड़ते हैं।

हर तरफ से ऐसी एक विकट स्थिति में, मजदूर समझ तो रहे हैं कि कुछ करने की ज़रूरत है, अन्यथा उन्हें बिना कोई विरोध मार खाते रहना होगा।

क्यों बढ़े हमले

जुझारू मजदूर, विशेष रूप से अगुआ मजदूर यह भी समझते हैं कि जिस तरह से मालिक और सरकार की साझेदारी से इन हमलों को अंजाम दिया जा रहा है, उस वजह से किसी अलग-थलग रूप से इसका मुकाबला नहीं किया जा सकता है, हमें पूरे देश में एक होकर लड़ना होगा।

लेकिन समस्या यह है कि मजदूर ये भी देख रहे हैं कि, वास्तव में वे लंबे समय से ही ये देख रहे हैं कि, कुछ करने का अर्थ यह निकला जा रहा है कि हर साल दो साल में भारत बंद करना है।

पिछले साल जनवरी में केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने दो दिवसीय भारत बंद का ऐलान किया था। पिछले तीस वर्षों में, केंद्रीय यूनियनों द्वारा भारत को बंद करने के लिए कम से कम 15/20 ऐसे ऐलान किए जा चुके हैं।

मजदूरों को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं थी, वे वास्तविक अनुभव से समझ गए थे कि कुछ भी होनेवाला नहीं है।

वास्तव में यही हो रहा है कि एक ओर ‘भारत बंद’ हो रहा है तो दूसरी ओर, मालिकों के हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। लड़ाई का मतलब है तो मालिक या सरकार को धक्का देना।  धक्का देना तो दूर की बात, उन सरकार और मालिक वर्ग में इस हड़ताल लेकर खलबली तक नहीं मच रहा है।

नतीजतन,मजदूरों के लिए, खास तौर पर उनके लिए जो मालिकों को रोकने के बारे में सोच रहे हैं, सोच रहे हैं कि कुछ करने की आवश्यकता है, वे न तो केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा अचानक बिना कोई तैयारी ऐलान किया गया हड़तालों में जी-जान से शिरकत कर पा रहे है, और ना ही इन हड़तालों का विरोध कर काम के लिए जा पा रहे हैं।

संघर्ष क्यों पीछे जा रहा?

क्योंकि तब तो यह मालिकों और सरकार के हमले का समर्थन करना होगा। मजदूरों ने वास्तव में दुविधा में पड़ते जा रहे हैं।

उनके पास वास्तव में असरदार तरीके से कुछ भी करने के लिए कोई रास्ता नहीं है, यानी पूरे देश में एकजुट होकर कड़ी लड़ाई करने का रास्ता खुला नहीं है, क्योंकि मजदूरों का सचमुच अपना कोई संगठन नहीं है, और उन्हें पुराने केंद्रीय ट्रेड यूनियनों पड़ बहुत विश्वास है मामला ऐसा भी नहीं है।

क्योंकि ये सभी यूनियनें अपने-अपने पार्टियों के हितों को, या सही मायने में, उन पार्टियों के चुनावी हितों का ही देखभाल किया है, न कि मजदूरों के हितों को।

वे मजदूरों के हित के विपरीत, समझौता की प्रक्रिया में मालिकों के हितों का ही समर्थन किया है और जैसे-जैसे मालिकों के हमले बढ़े हैं, उस तरह समझौता करने में उनकी भूमिका भी बढ़ी है।

यह हकीकत है कि जब कारखाने के स्तर पर मालिकों का हमला हुआ था तब मजदूरों के बीच में विरोध पैदा होने के बावजूद एवं कारखाने में एक संगठन का मौजूदगी के बावजूद, उन्होंने मजदूरों को लड़ने के लिए आगे बढ़ने नहीं दिया।

नतीजा में आज बड़े पैमाने पर मजदूर निराश हैं, और उनके एक-दिवसीय या दो-दिवसीय ‘हड़ताल’ के लिए मजदूर उदासीन हैं। लिहाज़ा एक ‘हड़ताल’ नाम से कुछ तो होता है, लेकिन संघर्ष आगे नहीं बढ़ता। मजदूरों में लड़ाई का वातावरण भी पैदा नहीं होता है।

लड़ाकू मजदूरों को, विशेष रूप से अगुआ मजदूरों को, यह समझने की जरूरत है कि अगर जमीनी तल पर, कारखाने के स्तर पर मजदूर संघर्ष में शामिल नहीं होता है, यानी अगर वे प्रारंभिक प्रतिरोध निर्माण के काम में ही शामिल नहीं होते, तब ऊपर से केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा ऐलान किया गया तथाकथित आम हड़ताल नाम के वास्ते ही होगा जो हकीक़त में बेअसर होगा।

क्या रस्मी कार्रवाई बन गई है हड़ताल?

यह एक नियमित खानापूर्ति की हड़ताल बन जाएगी, जिस पर मालिक और सरकार को कोई ध्यान नहीं होगा, और न ही वे इस पर गौर करेंगे।

फिर कोई कारखाना स्तर की संघर्ष भी वास्तव में नहीं होगा, जब तक न मजदूरों ने इन सभी पुरानी ट्रेड यूनियनों को हटा दें और अपनी स्वतंत्र यूनियनें न बना लें – जो यूनियनें सच में मजदूरों की होंगी, नेताओं का नहीं।

आज सच में ही कोई रास्ता नहीं है, हमें थोड़ा पीछे जाना होगा जहां पुराने नेताओं ने हमें धकेल दिया है और कारखाने के स्तर पर लड़ाई  और उस लड़ाई के लिए अपना स्वतंत्र संगठन बनाने के बारे में सोचना होगा।

ज़ाहिर सी बात है, लड़ाकू अगुआ मजदूरों को ही भविष्य की ओर देखते हुए यह पहल करनी होगी। आने वाले दिनों ( वह पांच साल हो या दस साल हो ) में हम ऐसे जमीनी संघर्ष और स्वतंत्र संगठनों के आधार पर खड़े होकर उस संघर्ष के लिए एक राष्ट्रव्यापी संघर्ष और एक राष्ट्रव्यापी संगठन का निर्माण कर सकेंगे।

यदि हम खुद को मजदूर मानते हैं और अपनी क्षमताओं पर विश्वास रखते हैं तब हम ये कर सकेंगे। निश्चित रूप से ऐसा करना होगा।इसके अलावा, बचने का कोई और रास्ता नहीं है।

अगर यह मार्ग हम बना नहीं पाये तब तो हड़ताल का आह्वान ऊपर से होता रहेगा और हमें बार-बार मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

(ये लेख मज़दूर पत्रिका हमारी सोच से साभार प्रकाशित है। ये ज़रूरी नहीं है कि इस लेख से वर्कर्स यूनिटी की संपादकीय सहमति हो। ये लेख विभिन्न विचारों को सामने लाने के लिए प्रकाशित किया जा रहा है।) 

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