बनारस के 18 हज़ार नाविक भुखमरी के शिकार, भूख मिटाने को बेच रहे गहने और घर के सामान

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By एस कुमार

मुझें अर्थशास्त्र ज्यादा नहीं आता, लेकिन इस कोरोना काल में कुछ विफलता मुझे दिख रही है। वो क्षेत्र जो असंगठित है। उनकी हालत बहुत बुरी हुई है। इस लॉक डाउन के समय में बहुत से लोगों ने अपने काम गवाएं हैं।

इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस के लोग अलग नहीं हैं, जिन्हें बहुत साल पहले बनारस को क्योटो बना देने का वादा दिया गया था।

बनारस अपनी फांका मस्ती में मस्त रहने वाला शहर है, जो आज भी अपनी अड़ियों, लस्सी, साड़ी और धार्मिक केंद्र के लिए जाना जाता है।

पूरे इस कोरोना काल में एक ज़िंदा शहर में सन्नाटा है और जो लोग मस्ती में डूबे रहते थे, अब अपनी हालत में बहुत नाज़ुक है।

बनारस में 18 हजार नाविक हैं जो नगर निगम में रजिस्टर्ड हैं और इनसे जुड़़े हज़ारों परिवार और लाखों लोग भी। ये नाविक जो सुबह बनारस के साथ जगते है।

और रात की धुन के साथ अपना गान करते अपनी नावों पर सो जाते हैं। आपको गंगा की पावन गोद में सैर करते हैं, वो पूरी तरह इस लॉकडाउन में भुखमरी के शिकार हो गए।

बुनकर बर्बाद, रिक्शा वाले बेरोज़गार

अखबारों की ही ख़बर है कि वो अपनी पत्नियों के गहने बेचने को मजबूर हैं और आने वाले दिन उनके और कष्टकारी होंगे।

अगले तीन महीने बरसात में उनके पास कोई काम नहीं होता और ये सब गैर रजिस्टर बेरोजगार रहते हैं।

बनारस पर्यटकों का शहर है। यहां हर महीने लाखों देसी-विदेशी पर्यटक आते हैं। जिनसे ऑटो, रिक्शा, टैक्सी, होटल, पण्डा, बुनकर इन सभी की आजीविका बंधी हुई है।

ये इन पर्यटकों पर ही निर्भर करते हैं और आने वाले समय में ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो बहुत जल्दी शुरू होने वाला है।

बनारस में हज़ारों ऑटो वाले हैं। एकबार ऑटो यूनियन के अध्यक्ष ने बताया था कि ‘ये संख्या 40 हज़ार के पार है। और अगर आप ई रिक्शा जोड़ देंगे तो ये संख्या करीब 60 हजार के आस पास होगी। टैक्सी की संख्या भी बनारस में हजारों की होगी।’

बनारस में बुनकरों की आबादी पांच लाख है। एक बुनकर दोस्त ने बताया था कि ‘इस लॉकडाउन ने हमको पूरी तरह बर्बाद कर दिया। वैसे ये हालत नोटबन्दी से ही जारी थी, पर एक उम्मीद तो थी।’

‘लोगों को उम्मीद थी कि आज नहीं तो कल कुछ बेहतर स्थिति हो सकती है। वो उम्मीद भी कोरोना ने आ कर पूरी तरह खत्म कर दी है।’

40 हज़ार रजिस्टर्ड रेहड़ी पटरी वाले

बनारस में मिर्ज़ापुर, सोनभद्र, भदोही और बिहार के विभिन्न ज़िलों से हजारों रिक्शा वाले मेहनत कर अपना पेट पालते हैं।

एक रिक्शा चालक ने कभी चलते चलते बताया था कि वो बीएचयू में रहते हैं। मैंने ताज्जुब व्यक्त किया तो उनका जवाब था, “हमारे लिए रिक्शा ही हमारा घर है। गद्दी के नीचे दो जोड़ी कपड़ा है और कहीं भी पेड़ की छांव में सो जाते हैं। अस्पताल के पीछे एक होटल में खाना खा लेते हैं।”

सोचिए लॉकडाउन में वो कहां गये होंगे, रोजी़ रोज़गार छिनने के बाद उन्हें किस राशन की दुकान से राशन मिल रहा होगा।

क्या इनको बेरोज़गार नहीं कहेंगे? सोशल डिस्टेंसिंग ने इनको भुखमरी के कगार पर ला खड़ा किया है।

बनारस में छोटे छोटे खमोचे लगाने वालों की भी एक बड़ी सख्या है। रेहड़ी पटरी वाले लोग 40 हजार नगर निगम में रजिस्टर्ड हैं। ये आपको खुले में कहीं भी दिख जाते थे। अब क्या आप इनकी लिट्टी खा पाएंगे?

बनारस सुबह की पूरी कचौड़ी जलेबी के लिए जाना जाता है। ये ठेले खोमचे वाले कहीं भी आपको खिलाते मिल जाते थे। ये सब बेरोज़गार हुए हैं।

बनारस में दस बड़े मजदूरों की सट्टी (लेबर चौक) है। रविंदपुरी, पांडेपुर, चौकघाट, कैंट, मडुवाडीह ऐसी और भी कई जगहें हैं। जहां हर रोज दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले हजारों लोग इक्क्ठा होते थे।

यहां से वो काम करने जाते थे। कहां गए होंगे ये हजारों मज़दूर या क्या कर रहे होंगे और अब कब इनको पूरी तरह काम मिलेगा?

कैंट, मडुवाडीह, काशी जैसे स्टेशनों पर अस्पताल के बाहर बस स्टैंड पर सैकड़ों लोग नीम की दातून बेचते थे। अब ये लोग क्या कर रहे होंगे।

बनारस एक धर्मिक शहर है तो यँहा हजारों लोग बच्चों के खिलौने, फूलमाला, दीया, धर्मिक पूजा का समान बेचने वाले हजारों लोग हैं।

दुकानों, मॉल, सिनेमा हॉल, डिलीवरी बॉय, घरों पर जा कर काम करने वाली औरतें, फर्नीचर का काम करने वाले, शादी विवाह में मंडप लगाने वाले, हलवाई, डेकोरेशन वाले, टैंट वाले… इन सबकी एक लंबी फ़ेहरिश्त है।

इनके साथ हज़ारों लस्सी की दुकानें, चाय की दुकानें, पान की दुकानें।

बनारस की आबादी 30 लाख से ऊपर है। अब आप सोचिये जब बनारस में बेरोज़गारी इस कदर बढ़ी है तो पूरे देश का हाल क्या होगा।

कोढ़ में खाज ये कि मोदी सरकार के 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा इनके घाव पर नमक भी नहीं रगड़ पाया है।

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