लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों का हाल देख, एक नौजवान निकल पड़ा 5100 किमी की जागरूकता यात्रा पर…

By प्रतीक तालुकदार

देश के 10 राज्यों से गुजरती हुई 5100 किमी की पैदल यात्रा पर चल पड़ा है 28 साल का एक युवक।

कंधे पर बैग टांगे और एक पोस्टर लिए शहर, गांव, खेड़े से होते हुए चला जा रहा है देश की लंबाई और चौड़ाई को नापते हुए।

पोस्टर पर लिखा है कि वह प्रवासी मजदूरों के लिए इस 5100 किमी की यात्रा पर निकला है।

अहमदाबाद, गुजरात के रहने वाले इस युवक – नरेश सीजापति से जब हमने बात की, तो मालूम पड़ा कि वह खुद प्रवासी मजदूरों के घर से आते हैं।

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बचपन से प्रवासी मजदूरों के बीच रहने और काम करने के कारण वह उनकी मुश्किलों को समझते हैं, और उनके लिए कुछ करना चाहते हैं।

जागरूकता का संदेश

इसी खातिर वह प्रवासी मजदूरों के प्रति समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता पैदा करने के लिए और उन इलाकों, जहां से सबसे ज्यादा संख्या में मजदूरों का एक तरह से ‘आर्थिक विस्थापन’ होता है, को और वहां के सामाजिक डाइनैमिक्स को समझना इस यात्रा का उद्देश्य है।

उन्होंने अपनी यात्रा 14 जून को मुंबई से शुरू की थी। महाराष्ट्र से गुजर कर गुजरात को छूते हुए वह मध्य प्रदेश में पहुंचे, जहां से फिर छत्तीसगढ़ से होते हुए वह झारखंड पहुंचे।

झारखंड से बिहार, और बिहार से होते हुए अभी वह उत्तर प्रदेश पहुंचे हैं। जहां से आगे बढ़ते हुए वह दिल्ली, हरियाणा और फिर राजस्थान से होते हुए अपने घर, गुजरात पहुंचेंगे।

इस यात्रा में वह शहरों के मजदूर चौक पर जा कर मजदूरों से मिलते हैं। अक्सर गांव में ठहरते हैं, उनके बीच रहते हैं। इस तरह वह उनकी समस्याओं को बेहतर समझने की कोशिश कर रहे हैं।

नरेश बताते हैं कि वह मूलतः नेपाल से हैं। साल 2001 में, जब वह 7-8 साल के थे तब उन्हें उनके माता पिता गुजरात ले आए, जहां वह काम करते थे।

नरेश की मां अहमदाबाद में घरेलू कामगार के रूप में काम करती थीं और उनके पिता सबमर्सीबल पंप की एक कंपनी में अंस्किल्ड वर्कर या अकुशल मजदूर के रूप में काम करते थे।

साल 2003-4 में उन्होंने अपने आस पड़ोस के बच्चों के साथ रैग पिकिंग या एक तरह का कूड़ा बीनने का काम किया।  कुछ आगे चल कर उन्होंने चाय की दुकानों पर काम किया।

इस समय तक उनका दाखिला एक सरकारी स्कूल में कराया जा चुका था। 8वीं कक्षा में सब्सिडी सीटों पर उनका दाखिला एक प्राइवेट स्कूल में हो गया जहां से उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की।

लॉकडाउन से मिली प्रेरणा

इस बीच उन्होंने होटलों में वेटर के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। चूंकि बड़े होटलों में नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी में ऑर्डर लेने पड़ते हैं, उन्होंने इंग्लिश सीखने की ठानी।

12वीं पास करने के बाद उन्होंने 2014 में ‘Teach For India’ प्रोग्राम के साथ काम किया जिसमें उन्होंने प्रवासी मजदूरों के बच्चों को पढ़ाया।

लेकिन उनके मन में प्रवासी मजदूरों के लिए कुछ आधारभूत बदलाव लाने की चाहत थी। साल 2015 में अपना एक NGO – पनाह शुरू किया, जिसमें वह प्रवासी मजदूरों की अलग अलग तरह की परेशानियों में मदद करते हैं।

साल 2016 में उनका चयन दिल्ली के School For Social Entrepreneurship में हो गया, जहां उन्होंने NGO चलाने के गुर सीखे।

इसके बाद उन्होंने State Bank of India के साथ काम किया जिसके तहत उनके आइडिया – डिजिटल मोबाईल वैन से अहमदाबाद के मजदूर चौक पर जा कर मजदूरों के अकाउंट खोले गए, उन्हें बीमा दिलवाया दिया, उनके रहने के लिए घर की व्यवस्था, या दूसरी तरह के कानूनी सलाह या लीगल ऐड देने जैसी मदद की गई।
वह दिल्ली में लेबर नेट के साथ भी काम कर चुके हैं।

कोरोना महामारी के लॉकडाउन के दौरान जब प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा चरम पर पहुंच गई थी, तब उन्होंने मजदूरों का नेटवर्क तैयार किया और 20,000 से ज्यादा मजदूरों की मदद की। कोविड रीलीफ के लिए उन्होंने 94 लाख रुपए फंड रेज़ किये और 12,500 मजदूरों को राशन पहुंचाया।

साल 2021 में लाइव्लीहुड प्रोग्राम में स्वनिधि योजना के तहत मिलने वाले लोन के लिए मजदूरों के 1200 आवेदन भरे गए जिसमें से 800 से ज्यादा मजदूरों को लोन की राशि डिसबर्स हो चुकी है।

निर्माण मजदूरों के बीच काम

लाइव्लीहुड प्रोग्राम के तहत युवाओं और प्रवासियों के स्वरोजगार के लिए वह ‘ऑटो एम्बुलेंस’, क्लाउड किचन, आदि जैसे प्रयोग कर रहे हैं।

अहमदाबाद में उन्होंने खासकर निर्माण मजदूरों को मिलाकर 7500 मजदूरों का नेटवर्क तैयार किया है। वह ‘पनाह टाइम्स’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका भी छापते हैं।

उनका उद्देश्य है कि प्रवासी मजदूरों, जो कि मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा है, के प्रति समाज में चेतना आनी चाहिए। उनके उत्थान से समूचे मजदूर वर्ग का उत्थान होगा।

और अगर यह प्रवासी मजदूर स्वरोजगार की मदद से स्वतंत्र हो जाएँ, तो वह अपने मेहनताने के लिए पूंजीपति पर निर्भर नहीं रहेंगे, बल्कि पूंजी को अपने कब्जे में कर सकेंगे।

बस इसी आशा से प्रवासी मजदूरों की समस्या को समझने और उन्हें उद्यमी बनाने के मिशन पर निकले हुए हैं यह मजदूर योद्धा।

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