आपदाओं को खुद आमंत्रित कर रही है सरकार: उत्तराखंड दुर्घटना

chamoli lake burst

 

By  राहुल कोटियाल

रैणी गांव की रहने वाली कमलावती देवी बुजुर्ग हो चली हैं। उन्हें अब अपनी उम्र भी ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन 2011 की एक घटना उन्हें आज भी बहुत अच्छे से याद है। वह बताती हैं , ‘उस साल के अगस्त की बात है। ऋषिगंगा पर बन रहे बांध का उद्घाटन था। बांध बनाने वाली कंपनी के मालिक पंजाब से आए थे। वो नीचे अपनी कंपनी के ऑफिस के पास खड़े थे, तभी ऊपर पहाड़ से एक बड़ा पत्थर गिरा और उनकी वहीं मौत हो गई थी। ठीक उद्घाटन के दिन ही कंपनी मालिक की मौत होना देवी का इशारा था कि इस बांध को यहीं रोक दिया जाए।’

कमलावती करीब 10 साल पहले हुई उस घटना का जिक्र कर रहीं थीं, जिसमें ऋषिगंगा पॉवर प्रोजेक्ट को बनाने वाली तत्कालीन कंपनी के मालिक राकेश मेहरा की मौत हो गई थी, जबकि वहां काम करने वाले बाकी लोगों में किसी को खरोंच तक नहीं आई थी। उस हादसे के बाद ऋषिगंगा प्रोजेक्ट का काम रुक गया था और कुछ समय बाद कंपनी का दिवाला निकल गया।

फिर साल 2018 में कुंदन ग्रुप नाम की एक नई कंपनी ने इसे खरीदा और प्रोजेक्ट पर काम दोबारा शुरू हो गया, लेकिन रैणी गांव के लोगों में इस प्रोजेक्ट को लेकर डर हमेशा बना रहा। प्रोजेक्ट के काम के चलते छह महीने पहले कंपनी ने रैणी गांव में देवी का एक मंदिर तोड़ दिया था। गांव के कई लोग कहते हैं कि ऋषिगंगा में अभी आई बाढ़ उसी का नतीजा है।

स्थानीय ग्रामीण समाज की मान्यताएं ऐसी ही हैं। इसकी वजह भी है। पहाड़ी समाज-संस्कृति में पर्वत से लेकर पेड़, जंगल और नदी तक सभी को देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता है। पहाड़ों, नदियों से छेड़छाड़ को स्थानीय समाज अपने देवता से छेड़छाड़ मानता है और आपदा को न्योता देने जैसे समझता है।

गांव वाले भले ही यह बात धार्मिक-सांस्कृतिक वजहों से कह रहे हों, लेकिन वैज्ञानिक भी बिल्कुल यही बात कहते हैं कि प्रकृति से ज्यादा छेड़छाड़ ही आपदाओं की वजह है।

वैज्ञानिक हर बार यह बात कहते हैं कि ऐसी घटनाओं का होना भले ही प्राकृतिक प्रक्रिया हो, लेकिन इसकी जड़ में कहीं न कहीं हिमालय में बढ़ता इंसानी दखल भी है। इसे समझने के लिए हम यहां कुछ ऐसी ही सरकारी नीतियों और प्रोजेक्ट्स का जिक्र कर रहे हैं, जो आपदाओं को बुलावा दे सकते हैं।

उत्तराखंड लोक निर्माण विभाग के अनुसार अलग राज्य बनने से पहले उत्तराखंड में सड़कों की कुल लंबाई 19,439 किलोमीटर थी। बीते बीस सालों में यह बढ़ कर 39,504 किलोमीटर हो चुकी है।

भूवैज्ञानिक डॉक्टर एसपी सती कहते हैं, ‘एक किलोमीटर सड़क बनने पर 20 से 60 हजार क्यूबिक मीटर डस्ट या मलबा निकलता है। जो हजारों किलोमीटर सड़क बनाई गई, उसमें कितना मलबा निकला होगा, इसी से अंदाज़ा लग जाता है।’ डॉक्टर सती आगे कहते हैं, ‘इस मलबे को कहीं सीधे नदियों में डाल दिया जाता है और कहीं पहाड़ी ढलानों पर खिसका दिया जाता है जो बरसात होने पर अंततः नदी में ही जाता है। इससे बाढ़ जैसी स्थिति होने पर नुकसान कई गुना ज्यादा हो जाता है।’

पहाड़ों में रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि ऊंचे हिमालयी इलाकों में जाते हुए कभी भी जोर से चीखना-चिल्लाना नहीं चाहिए या सीटी नहीं मारनी चाहिए, क्योंकि तेज आवाज से भी कमजोर पहाड़ी चट्टानें खिसक सकती हैं, लेकिन आज इन्हीं संवेदनशील पहाड़ों के बीच पर्यटन के नाम पर हेलिकॉप्टर गड़गड़ा रहे हैं और सड़क निर्माण के लिए डायनामाइट से ब्लास्ट किए जा रहे हैं।

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