लॉकडाउन के एक सालः करोगे याद तो हर बात याद आएगी…

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By संदीप राउज़ी

लॉकडाउन के एक साल पूरे हो गए। कुछ लोगों ने इसे मानव इतिहास का सबसे बड़ा पलायन और त्रासदी भी कहा है। इतने कम समय में इतना बड़ा पलायन तो 1947 के भारत पाकिस्तान के विभाजन के दौरान भी नहीं हुआ।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक आदेश पर देश भर में एक महीने के लॉकडाउन की घोषणा की थी। इससे पहले 22 मार्च को ताली थाली और दीप प्रज्जवलन का आह्वान कर इसकी पृष्ठभूमि रची गई।

इसके बाद आम जनता खासकर मज़दूर वर्ग और उसमें भी खासकर असगंठित क्षेत्र के मज़दूरों, ठेला खोमचा लगाकर रोजीरोटी चलाने वालों, दिहाड़ी, रिक्शा चलाने वालों पर जो कहर बरपा उसके जैसा इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

लेकिन इस लॉकडाउन में जब जनता सड़कों पर उतरी, अपने घर पहुंचने के लिए ही सही, तो स्टेट के हाथपांव फूल गए। प्रशासन और पुलिस इस जन सैलाब के सामन बौनी पड़ गई। तो दूसरी तरफ़ इस मज़दूर वर्ग की हिमायत और रहनुमाई का दावा करने वाली अधिकांश ट्रेड यूनियनें और संगठन अवाक् से रह गए और कुछ भी कर पाने की स्थिति में खुद को नहीं पा रहे थे। उनके पास कोआर्डिनेटेड हस्तक्षेप का कोई तरीका नहीं था।

हां इस दौरान जनता और स्वतंत्र सामुदायिक संगठनों ने आगे बढ़कर इन मज़दूरों के खाने पीने का इंतज़ाम किया। पूरे देश में गुरुद्वारों ने अनिश्चितकालीन लंगर लगाए। संवेदनशील नागरिकों ने प्याऊ लगाए, पड़ोस की मज़दूर आबादी के लिए राशन बांटे, सब्ज़ियों का इंतज़ाम किया। कई छात्र और शिक्षक संगठनों ने अपनी पहलकदमी पर लोगों की मदद के लिए पेटीएम जैसे मनी ट्रांसफ़र ऐप का सहारा लिया।

बड़े पैमाने पर ग्रामीण इलाकों में लोगों ने अपने वाहनों से मज़दूरों को अपने इलाके की सीमा तक पहुंचाया। लंगर लगाए।

दिल्ली में हर किलोमीटर पर जनता के जागरूक तबके ने खाने के पैकेट, पानी की बोतलें, दवाएं, फल जूस आदि लेकर सड़कों पर दिन रात मुस्तैद रहे। स्वतंत्र नागरिक समूहों ने ऐसे आपात समय में आगे बढ़कर खाने पीने का इंतज़ाम किया।

एक दुःस्वप्न

ट्रेन और बस की सुविधा बंद होने से लोगों ने वैकल्पिक साधनों को इस्तेमाल किया। गुड़गांव के मज़दूरों ने दो दो लाख रुपये देकर ट्रक किए और सड़क के रास्ते बिहार और बंगाल रवाना हुए।

महाराष्ट्र से पैदल चल कर मध्यप्रदेश पहुंचने की कोशिश में 17 मज़दूर रेल की पटरी पर कट कर मर गए। हादसे के बाद रेलवे पटरी पर बिखरी सूखी रोटियां लॉकडाउन की सबसे भयावह तस्वीरों में से एक रहीं।

ऐसी ही एक तस्वीर उत्तर प्रदेश से आई जहां एक ट्रक पर बैठ कर जा रहे मज़दूर दुर्घटनाग्रस्त हो गए। ट्रक पलट गया और चूने के ढेर के नीचे सारे मज़दूर दब कर मर गए। उनके बैग का ढेर उस त्रासदी का गवाह था।

इसके बाद यूपी सरकार ने ट्रकों पर बैठ कर जाने वाले मज़दूरों को उतारना शुरू कर दिया।

सड़कों पर पुलिस बैरिकेट से बचने के लिए मज़दूर रेलवे की पटरी पर पकड़ कर अपने घरों को पैदल चल पड़े थे। यहां तक कि सरकारों ने रेलवे ट्रैक पर भी पुलिस गश्त बढ़ा दी। लेकिन मज़दूर जान जोख़िम में डालकर भी अपने दुधमुहें बच्चों के साथ घर को चल पड़े थे।

इंदौर में कंक्रीट मिक्सर में बैठकर पहुंचे दर्जन भर मज़दूर जब बाहर निकले तब पता चला कि वे महाराष्ट्र से चले थे। लोहे के कम्पार्टमेंट में जून की तपती गर्मी में बंद होकर उन्होंने सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की।

दिल को बेध देने वाली कुछ तस्वीरों ने संवेदनशील लोगों की नींद उड़ा दी थी। एक परिवार पैदल ही जा रहा था और चलते चलते थक चुका पांच साल का एक बच्चा लगेज ट्राली पर औंधे लटके सो रहा था।

एक तस्वीर गुजरात से आई जहां एक महिला सूरत से ही पैदल चली आ रही थी। उसके हाथ में एक ट्राली लगेज बैग था और दूसरे हाथ में दुधमुहां बच्चा।

मेहनतकश जनता की ऐसी हज़ारों तस्वीरों ने जनमानस को हिलाकर रख दिया। मध्यप्रदेश से उत्तर प्रदेश जाते हुए एक महिला का सड़क पर ही प्रसव हुआ और वो कुछ घंटे आराम करने के बाद अपने नवजात के साथ घर को चल पड़ी।

गुजरात में एक प्रवासी मज़दूर की भूख से मौत हो गई और दो महीने पहले तंदरुस्त आया यह नौजवान सूख कर कांटा हो चुका था।

पहली बग़ावत सूरत से

इस लॉकडाउन में पहला विद्रोह भी मज़दूरों की ओर से हुआ। अप्रैल के अंत तक आते आते मज़दूरों का धैर्य चुक गया। सूरत में दसियों हज़ार मज़दूरों ने ट्रेन चलाए जाने की मांग को लेकर भारी प्रदर्शन किया। ऐसा ही प्रदर्शन हैदराबाद आईआईटी में काम करने वाले मजदूरों ने किया। इसके बाद मज़बूरी में मोदी सरकार को श्रमजीवी ट्रेनें चलानी पड़ीं।

उसमें भी इतनी अव्यवस्था कि ट्रेनों के टिकट की धांधली, खाने पीने की व्यवस्था का न होना, दो दिन की दूरी तक पहुंचने में हफ़्ते भर का समय लगना भारतीय रेलवे के दामन पर ऐसा धब्बा बन गया है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकेगा। कई लोगों की ट्रेन में मौत हो गई और इनके लिए मुआवज़े देने से मोदी सरकार साफ़ मुकर गई।

इस त्रासदी में मोदी सरकार की ओर से किए गए सारे वादे, ज़बानी जमा खर्च बन कर रह गए। लॉकडाउन के तीन महीने बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बयान आया जिसमें वो उन्होंने दावा किया कि 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन का प्रबंध किया गया और प्रवासी मज़दूरों को तीन टाइम का पूरा भोजन दिया गया।

जबकि हकीकत ये थी कि दिल्ली में ही सरकार ने खिचड़ी का इंतज़ाम किया था। स्वतंत्र संगठनों ने मज़दूर ढाबे जैसे प्रयोग किये तो लोग सरकार की खिचड़ी छोड़कर वहां आने लगे जहां खाने में हर रोज़ विविधता लाई जा रही थी। बंगला साहिब गुरुद्वारे में रोज़ाना एक लाख खाने के पैकेट तैयार किए जाते रहे।

वर्कर्स यूनिटी ने इस दौरान गुड़गांव में कई कम्युनिटी किचन स्थापित किए। बड़े पैमाने पर राशन का वितरण किया और आर्थिक मदद पहुंचाई। ताज्जुब की बात ये है कि सरकारी दावों से उलट, इन गुरुद्वारों ने पुलिस और प्रशासन को भी खाना पहुंचाया।

बिहार के सासाराम के गुरुद्वारा प्रबंधकों ने हमें बताया कि वहां के डीएम ने बुलाकर लंगर लगाने को कहा और मदद की अपील की। यानी प्रशासन खाना उपलब्ध कराने में पूरी तरह नाकाम रहा।

80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन उलब्ध कराने के दावे की पोल रोहतास ज़िले के योगीपुर गांव में खुली जहां सैकड़ों मुसहर जाति के परिवार रहते हैं और अधिकांश का राशन कार्ड निरस्त कर दिया गया था।

राजा का डर, जनता की बदहाली

इस आपदा में ऐसी लाखों कहानियां हैं जहां सरकार की अक्षमता और उसकी क्रूरता उजागर हुई। एक्रास द पार्टी लाईन सरकारों की निर्दयता और हृदयहीनता का भी मुजाहिरा हुआ। जब स्थानीय लोग प्रवासी मज़दूरों को खाना पानी

आश्रय दे रहे थे, यूपी के बुलंदशहर प्रशासन ने एक सर्कुलर जारी कर चेतानी दी कि जो लोग बाहर से आ रहे प्रवासी मज़दूरों को अपने घर के बाहर रोकेंगे या खाने पीने की चीजें देंगे, उन पर कानूनी कार्यवाही की जाएगी। इस तरह से प्रवासी मज़दूरों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया गया और स्टेग्मेटाइज़ करने की पूरी कोशिश हुई।

जो मज़दूर अपने गांव पहुंचे उन्हें बिना व्यवस्था वाले स्कूलों में क्वारंटीन कर दिया गया जहां घर के लोग उन्हें खाना पीना देने जाते थे।

इन क्वारंटीन सेंटरों में न तो बिस्तर की व्यवस्था थी न बिजली पानी और खाने की। बिहार के एक क्वारंटीन सेंटर में सांप काटने से एक मज़दूर हो गई। क्वारंटीन सेंटरों में हंगामा होने लगा। प्रशासन ऐसे क्वारंटीन सेंटरों से मज़दूरों को तुरंत छुट्टी देने लगे।

सरकार ने पूरे देश क एक तरह से पुलिस स्टेट में बदल कर रख दिया था। सुरक्षा से लेकर खाने पीने तक की ज़िम्मेदारी पुलिस के हवाले की गई थी और पुलिस ने बहुत निर्दयता से मज़दूरों पर व्यवहार किया। यूपी में जगह जगह मज़दूरों को मुर्गा बनाया गया, उन्हें सड़क पर रेंग कर चलने पर मज़बूर किया गया। उन पर सैनिटाइज़र का छिड़काव किया गया।

राज्य सरकारों ने कड़ाई के मामले में होड़ करती दिखीं लेकिन प्रवासी मज़दूरों कों ज़रा सी भी राहत देने के मामले में भरसक आंख चुराती रहीं।

इस भयानक त्रासदी में कई मज़दूरों ने खुदकुशी कर ली। गुड़गांव में रहकर काम करने वाले बिहार एक मज़दूर ने अपना मोबाइल बेच कर राशन खरीदा और घर पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। कानपुर में एक मज़दूर ने अपनी पत्नी को साड़ी गिफ़्ट किया था, उसी साड़ी से उसने अपनी गर्दन में फांसी लगा ली।

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नौकरियों पर कहर बन टूटा लॉकडाउन

ऐसी सैकड़ों घटनाएं हुईं। लेकिन इस त्रासदी का ये तात्कालिक पहलू था। दूसरा तात्कालिक पहलू और भयावह होकर सामने आया।

फैक्ट्रियों में काम करने वाले असगंठित क्षेत्र के मज़दूरों की नौकरियां चली गईं। मोदी सरकार के ये कहने के बावजूद कि लॉकडाउन की सैलरी कंपनियां न काटें, अधिकांश कंपनियों ने उस दौरान की न सिर्फ सैलरी काट ली, बल्कि मज़दूरों को नौकरी से भी बाहर कर दिया, ताकि उनका दावा भी जाता रहे।

जिन कंपनियों में मई के मध्य से काम शुरू हुआ, वहां भी किसी न किसी बहाने मज़दूरों की छंटनी की गई। और बाद के दिनों में तो वेतन वृद्दि से साफ़ इनकार कर दिया गया। इसीलिए आज पूरे ऑटो सेक्टर में एक भारी असंतोष पनप रहा है।

लॉकडाउन लगाते ही पीएम मोदी ने एक नारा दिया था- आपदा को अवसर में तब्दील करने का। इस दौरान कंपनियों के लिए ये आपदा अवसर में तब्दील बन गई जब मोदी सरकार ने संक्षिप्त मानसून सत्र बुलाकर धड़ाधड़ 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार लेबर कोड के साथ साथ तीन कृषि क़ानून भी जबरदस्ती पास करा लिए।

इनमें एक लेबर कोड 2019 में ही पास करा लिया गया था। शेष तीन लेबर कोड लॉकडाउन में पास कराए गए। ट्रेड यूनियन ऐक्ट, कारखाना ऐक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम समेत मज़दूरों के अधिकार और उनके आर्थिक सामाजिक सुरक्षा के कानून खत्म कर दिए गए। अब इसे 1 अप्रैल से लागू किए जाने की बात की जा रही है।

लेकिन श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने की भी शुरूआत इसी लॉकडाउन में हो गई थी, जब गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान समेत कई राज्य सरकारों ने तीन महीने के लिए सभी श्रम क़ानूनों को निलंबित कर दिया था।

वर्गीय नफ़रत

यूनियनों को इसकी भनक थी, लॉकडाउन में तभी सबसे पहले ट्रेड यूनियनों ने जनरल स्ट्राइक का आह्वान किया और जंतर मंतर पर इकट्ठा होने के कारण केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के नेताओं पर एफ़आईआर दर्ज की गई। उधर पंजाब में कृषि क़ानूनों को लेकर लॉकडाउन तोड़ते हुए बड़ी बड़ी रैलियों का आयोजन शुरू हो चुका था।

बहरहाल, लॉकडाउन ने कुछ चीजों को एकदम स्पष्ट कर दिया। पहला ये कि सिर्फ भाजपा सरकारों ने ही नहीं बाकी अन्य पार्टी की सरकारों का रवैया इस दौरान मज़दूरों को कुचल देने का रहा।

अपने मज़दूरों को लाने से भी राज्य सरकारों ने इनकार कर दिया। उनकी मदद के लिए तरह तरह के ऐप बनाए लेकिन वे सब दिखावा भर निकले। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश सरकार ने बिहार के प्रवासी मज़दूरों को वापस लाने से ही इनकार कर दिया। जबकि यूपी की योगी सरकार ने एक हज़ार बसों को लगाया।

इससे उलट विदेशों में फंसे भारतीयों को लाने के लिए वायु सेना और एयर इंडिया के विमान लगाए गए। देश के अंदर पहाड़ों पर फंसे टूरिस्टों को विशेष वोल्वो बसों से उनके घर पहुंचाया गया। राजस्थान के कोटा में फंसे छात्रों को लाने के लिए यूपी ने विशेष रोडवेज़ बसों का इंतज़ाम किया।

इसने सरकारों की वर्गीय पक्षधरता को उजागर करके रख दिया।

लॉकडाउन ने प्रवासी मज़दूरों की तादाद को लेकर तमाम भ्रमों को तोड़ कर रख दिया। तमाम विशेषज्ञों को अपने आंकड़ों को दुरुस्त करने का मौका भी मिला। प्रमुख लेबर हिस्टोरियन प्रभु मोहपात्रा का कहना था कि ये आबादी क़रीब 20 से 25 करोड़ है और इनमें भी 60-70 प्रतिशत के यूपी, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के हैं।

इस इलाके से पलायन का इतिहास 200 साल पुराना है। पहले ये पूरब की ओर पलायन करते थे, अब ये पश्चिम की ओर पलायन करते हैं।

कुछ सबक

असंगठिक क्षेत्र को संगठित करने वाली ट्रेड यूनियनों, संगठनों को पहली बार प्रवासन के पैमाने का अहसास हुआ। तो साथ ही पहली बार इस असंगठित क्षेत्र के प्रवासी मज़दूरों को संगठित करने के सूत्र भी सामने आए।

उदाहरण के लिए सूरत में प्रवासी मज़दूरों ने विशाल प्रदर्शन आयोजित कर सरकार को ट्रेन चलाने पर मज़बूर किया।

पैदल चलकर सासाराम पहुंचे एक मज़दूर ने बताया कि एक ही गांव या इलाके से गए मज़दूर एक अनौपचारिक कमेटी बना लेते हैं और उनका एक मुखिया होता है जो सारी समस्याओं पर विचार विमर्श कर फैसले लेता है जो सबको मान्य होते हैं।

दूसरी सबसे अहम बात ये कि सिर्फ भारत सरकार ने ही नहीं, पूरी दुनिया के स्तर पर सरकारों ने लॉकडाउन को कारपोरेट हित में साधने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया। ठेले खोमचे और खुदरा दुकानों पर पाबंदी लगा दी गई लेकिन कारपोरेट फूड स्टोर खुले रखे गए। खाना वितरित करने वाली कंपनियों को खुली छूट थी।

ऑनलाइन मनी ट्रांसफर करने वाली कंपनियों को धंधा खूब चमका। कारपोरेट को कुल मिलाकर फायदा हुआ। भारत के शीर्ष उद्योगपतियों की दौलत में अचानक उछाल आ गया। पियू रिसर्च का कहना है कि भारत में मध्यवर्ग 30 प्रतिशत सिकुड़ गया है जबकि ग़रीबों की संख्या में तीन करोड़ 20 लाख की बढ़ोत्तरी हो गई है।

सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनोमी (सीएमआईई) की हाल ही में आई रिपोर्ट कहती है कि पैंडेमिक और लॉकडाउन के कारण सबसे अधिक त्रासदी महिलाओं ने झेली। पिछले साल अप्रैल के बाद से ही जितनी नौकरियां गईं हैं उनमें महिलाओं की एक बड़ी आबादी है। इसके अनुसार जितनी नौकरियां गई हैं, उनमें 49 प्रतिशत महिला कामगार हैं।

लॉकडाउन के बाद मज़दूरों के लिए परिस्थितियां और भयावह हुई हैं, लेकिन मोदी की वर्चुअल लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। क्या वाकई मज़दूर वर्ग मौजूदा चुनौतियों से बेखबर है, ये सबसे बड़ा सवाल है।

(लेखक वर्कर्स यूनिटी के फाउंडर एडिटर हैं।)

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