तेलंगाना सरकार ने 80 कोया आदिवासी परिवारों को किया बेदख़ल, खड़ी फ़सल पर कराया वृक्षारोपड़

koya tribal families evicted from their lands

ऐसे समय में जब पूरे देश में कोरोना के मामले रोज़ नए रिकॉर्ड क़ायम कर रहे हैं वन विभाग पूरे देश में आदिवासियों और वनवासियों को उनकी ज़मीन से बेदख़ली का अभियान चला रहा है।

तेलंगाना में कोया जनजाति के 80 परिवारों से पुलिस और वन विभाग के कर्मियों ने उनकी खेती की ज़मीन से बेदख़ल कर दिया।

सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चेताया है  कि आदिवासियों के जबरन विस्थापन से न केवल आजीविका और सामाजिक संकट का नुकसान होगा, बल्कि यह पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।

नेशनल हेराल्ड वेबसाइट के मुताबिक, तेलंगाना के भद्राद्री खोटागुडेम ज़िले के गानुगापडु के सत्यरानारायनम में रहने वाले कोया जनजाति के लोगों ने शिकायत की है कि उन्हें राज्य सरकार ने ज़बरन बेदख़ल कर दिया है।

राज्य सरकार हरिता हरम कार्यक्रम के तहत अभियान चला रही है। 2015 में शुरू किए गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य राज्य में वृक्षारोपण को 24% से बढ़ाकर 33% करना है।

खड़ी फ़सल पर वृक्षारोपड़

आदिवासी समुदाय के लगभग 80 परिवारों का कहना है कि लगभग 200 एकड़ में फैले उनके खेतों को छीन लेने से उनकी आजीविका पर संकट पैदा हो गया है।

ये आदिवासी परिवार दाल, बाजरा और कपास की खेती कर अपना जीवन यापन कर रहे थे। 2019 में जिला कलेक्टर ने ग्रामीणों को वन अधिकार प्रदान करने की मांग की याचिका को आगे बढ़ाया था लेकिन यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी थी।

आदिवासियों का कहना है कि पड़ोसी गांवों के मजदूरों ने मनरेगा कार्यक्रम के तहत 17 जून को वृक्षारोपण अभियान शुरू करने के लिए गड्ढे खोदे थे।

जबकि इस ज़मीन पर वृक्षारोपण अभियान के शुरू होने से पहले ही फसल बो दी गई थी लेकिन फिर भी उन्हें अपने खेतों तक पहुचने से रोका गया।

ग्रामीणों का कहना है कि वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके दावे अभी भी लंबित हैं। इसी तरह की घटना 2002 में घटी थी जब इस ज़मीन पर कब्जा करने की वन विभाग ने कोशिश की थी।

ग्राम सभा की मंज़ूरी भी नहीं ली

इसके बाद 20 आदिवासी परिवारों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज किए गए और इन लोगों ने अपना पक्ष रखते हुए कई याचिकाएँ दीं।

जब 2011 में वन अधिकार क़ानून लागू हुआ तो इन्हीं याचिकाओं को आधार बना कर इस ज़मीन पर कोया आदिवासियों ने अपने दावे के सबूत के तौर पर पेश किया। ये आदिवासी परिवार सालों से इस ज़मीन पर खेती कर रहे थे।

समाचार वेबसाइट को स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता लिंगराज ने कहा, “लगभग 50 लोगों को घेर लिया गया और उन्हें नजदीकी पुलिस स्टेशन ले जाया गया, जहाँ उन्हें धमकी दी गई थी कि उन्हें जेल में बंद कर दिया जाएगा और विवश किया गया कि वे वृक्षारोपण अभियान के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन न करें और आधिकारिक बयान पर हस्ताक्षर करें।”

यह एक अनुसूचित जनजातीय क्षेत्र है, और कानून के तहत क्षेत्र में इस तरह के वृक्षारोपण के लिए ग्राम सभा की मंज़ूरी लेनी ज़रूरी है।

लेकिन इस मामले में कोई ग्राम सभा की सहमति नहीं ली गई थी। ग्रामीणों को यह भी बताया गया कि पोडू भूमि भी सरकार पड़ोसी गांवों में इसी उद्देश्य के लिए अधिग्रहित कर रही है।

पोडू भूमि वो कृषि भूमि है जो कि स्थानीय जनजातियों की पारंपरिक खेती की प्रथाओं के तहत है और पहाड़ी ढलानों पर प्रचलित है। इस भूमि को कुछ समय के खाली छोड़ दिया जाता है और कुछ मौसमों में खेती की जाती है।

गरीब आदिवासी किसानों को उनकी भूमि से बेदखल करने के लिए पुलिस बल का उपयोग करना पंचायतों के (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम 1996 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के ख़िलाफ़ है।

कैंपा के पैसे से आदिवासियों के अधिकारों का हनन

वन अधिकार अधिनियम के तहत, अनुसूचित जनजाति या पारंपरिक वन निवासी को उसकी पैतृक भूमि से तब तक बेदखल नहीं किया जा सकता है, जबतक इस क़ानून के तहत औपचारिक प्रक्रिया पूरी नहीं की जाती।

ग्राम सभा को वन अधिकार नियम के तहत समुदाय और व्यक्तिगत मामलों में फैसला लेने का अधिकार है और अंतिम निर्णय ज़िला स्तरीय समिति लेती है।

केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा से अपील करते हुए, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि राज्य सरकार को (हरित हरम) कार्यक्रम पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है। सरकार  क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA) के फंड का इस्तेमाल करके आदिवासी समुदायों के मौलिक अधिकारों को छीन रहा है।

कार्यकर्ताओं ने चेताया कि आदिवासियों के जबरन विस्थापन से न केवल आजीविका और सामाजिक संकट बढ़ेगा, बल्कि यह पर्यावरण  पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।

सीपीआई-एम के पूर्व सांसद और आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच के नेता मिद्यम बाबू राव ने कहा कि उन्होंने हाल ही में पड़ोसी खम्मम जिले के मुल्लाकापल्ली गांव के 35 आदिवासी परिवारों को भूमि से बेदख़ल किये जाने के मामले दख़ल दिया था। जिसके बाद किसानों की ज़मीन बच पाई।

(ये ख़बर नेशनल हेराल्ड से साभार प्रकाशित है। अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद दिव्या ने किया है।)

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