‘जेब और पेट दोनों खाली हैं, इससे अच्छा तो लॉकडाउन था कम से कम नाम का ही खाना तो मिल जाता था’

migrant worker in delhi nizamuddin

कोरोना महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन को एक साल होन गये हैं। जिस मज़दूर वर्ग को लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ वो अब भी बेहद तक़लीफ़ में हैं। सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर बड़े शहरों से अपने गांव गए मज़दूर वापस तो आ गए हैं, पर अब भी उनमें से ज्‍यादातर की जेब और पेट  पहले की तरह ही खाली है।

बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर रेलवे स्टेशन पर मृत पड़ी अपनी मज़दूर मां को उठाने की कोशिश करते बच्चे की तस्वीर आप सबको याद होगी लेकिन सरकार शायद भूल चुकी है।

35 साल की अवरीना परवीन श्रमिक ट्रेन से सूरत से कटिहार जा रही थीं मगर बीच रास्ते में ही भूख और गर्मी से ट्रेन में ही उन्होंने दम तोड़ दिया था।

इस बच्चे को तो एक NGO ने गोद ले लिया। लेकिन घर जाते वक़्त दुर्घटना से, भूख से मारे गए सैकड़ों मज़दूरों के परिवार अब भी ग़रीबी में जी रहे हैं।

पिछले 5 सालों में 6500 मज़दूर दुर्घटनाओं में मारे गए, हर दिन करीब 4 मज़दूर मर रहे – रिपोर्ट

42 साल के अब्दुल सलाम भी वर्ष 2020 में लॉकडाउन के दौरान लगभग 1300 किमी पैदल चलकर बिहार के अपने गांव कटिहार गए थे। सितंबर माह में वे वापस आए लेकिन हालात लगभग जस के तस हैं।

घरों में पुताई का काम करने वाले अब्दुल सुबह से शाम तक मालवीय नगर की लेबर चौक में काम मिलने की उम्मीद में बैठे रहते हैं लेकिन हफ़्ते में दो दिन से ज़्यादा काम नहीं मिलता।

सलाम बताते हैं, ‘गाय-भैसों की तरह पैदल और ट्रकों में भरकर अपने गांव गए थे लेकिन वहां भी क्या करते। यहां वापस आए हैं तो भी काम नहीं है।

65 साल की उम्र के बुज़ुर्ग रिटायरमेंट लेकर घर पर आराम करते हैं पर 65 साल के बुज़ुर्ग राम भरोसे काम मिलने की उम्मीद में अपने से आधी उम्र के मज़दूरों के साथ लेबर चौक पर इंतजार करते हैं।

कई बार उन्‍हें काम नहीं मिलता। लॉकडाउन के दौरान ये भी अपने गांव गए थे लेकिन जमा किए गए पैसे ख़त्म हो गए। बच्चों ने भी सहारा न दिया तो वापस मज़दूरी करने लौट आए।

राम भरोसे बताते हैं, ‘क्या करें काम है ही नहीं। तीन टाइम की जगह एक टाइम खाना खा रहा हूं। सब्ज़ी का पैसा नहीं है तो चटनी-रोटी खा रहा हूं। क्या करूं’ ।

इसी तरह महिपाल सिंह ने अपने बच्चों का दाख़िला अंग्रेज़ी स्कूल में कराया था लेकिन लॉकडाउन ने ऐसा मारा कि बच्चों का स्कूल से नाम कटाना पड़ा और अब बच्चों और अपना पेट भरने के लिए मशक़्क़त कर रहे हैं।

एक अन्‍य मजदूर महिपाल सिंह की बेटी केंब्रिज स्कूल में पढ़ती थी लेकिन पैसे नहीं होने के कारण नाम कटाना पड़ा। उनका बेटा भी पेपर नहीं दे पाया।

आप दिल्ली के किसी भी लेबर चौक चले जाएं तो आपको खाली बैठे मज़दूर दिख जाएंगे। कोई एक काम देने वाला आता है तो सब टूट पड़ते हैं।

दरअसल लॉकडाउन से सबकी जेब पर असर हुआ है यही वजह है कि नए घर कम बन रहे हैं और इन मज़दूरों को काम नहीं मिल पा रहा।

NDTV की खबर के मुताबिक जब इन मज़दूरों ने उनके संवाददाता को गाड़ी से उतरते देखा तो घेरकर खड़े हो गए इन्हें लगा कि कोई काम देने वाला आया।

इनके हालात बिल्कुल नहीं बदले बल्कि पहले से और ख़राब हो गए हैं। कई मज़दूरों ने बताया कि  लॉकडाउन में कम से कम सरकारी खाना तो मिलता था लेकिन अब तो उसका सहारा भी नहीं रहा।

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